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सलाम
सहर का वक़्त है मा'सूम कलियाँ मुस्कुराती हैंहवाएँ ख़ैर-मक़्दम के तराने गुनगुनाती हैं
माहिरुल क़ादरी
ना'त-ओ-मनक़बत
हर किताब-ए-आसमानी है मुबश्शिर आप कीहर नबी से ख़ैर-मक़्दम की हुई तबशीर है
शाह अब्दुल क़ादिर बदायूँनी
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ग़ज़ल
किया बढ़ के ख़ैर-मक़्दम उसे सर पे भी बिठायाजो नसीम-ए-सुब्ह आई तिरे सेहन-ए-गुलिस्ताँ से
मुजीबुल हसन नव्वाबी
ग़ज़ल
जुनूँ ने ख़ैर-मक़्दम कर के रख ली शर्म-ए-रुस्वाईअभी जन्नत से निकले थे कि तिरी रहगुज़ार आई