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ग़ज़ल
इम्तिहाँ मख़्सूस-ए-ख़ासां है तो 'रासिख़' शुक्र करयार तेरे आज़माने की तरफ़ माइल हुआ
रासिख़ अज़ीमाबादी
सूफ़ी लेख
हज़रत मख़दूम अशरफ़ जहाँगीर सिमनानी के जलीलुल-क़द्र ख़ुलफ़ा - सय्यद मौसूफ़ अशरफ़ अशरफ़ी
सूफ़ीनामा आर्काइव
ग़ज़ल
मेरी ही मख़्सूस होती काश ये बे-पर्दगीख़ास रहना था ’उमूमन ख़ुद-नुमा तुम क्यूँ हुए
ग़ुलाम अ’ली रासिख़
ना'त-ओ-मनक़बत
ये सर्व-ए-दिल-ए-जाँ किया मख़्सूस नहीं कुछ भीहर चीज़ तुम्हारी है क्या पेश हो नज़राना
शारिक़ रब्बानी
ना'त-ओ-मनक़बत
हर नबी का हुक्म उन की क़ौम पर मख़्सूस थारहमत-ए-'आलम का हुक्म-ए-’आम ’आलम-गीर है
शाह अब्दुल क़ादिर बदायूँनी
सूफ़ी लेख
चिश्तिया सिलसिला की ता’लीम और उसकी तर्वीज-ओ-इशाअ’त में हज़रत गेसू दराज़ का हिस्सा
ख़लीक़ अहमद निज़ामी
सूफ़ी लेख
वेदान्त - मैकश अकबराबादी
संहिता या’नी चारों वेदों के बा’द जो किताबें वेदिक अदब में क़ाबिल-ए-एहतिराम हैं वो बरहमन हैं
मयकश अकबराबादी
सूफ़ी लेख
महफ़िल-ए-समाअ’ और सिलसिला-ए-वारसिया
अ’रबी ज़बान का एक लफ़्ज़ ‘क़ौल’ है जिसके मा’नी हैं बयान, गुफ़्तुगू और बात कहना वग़ैरा।आ’म
डॉ. कबीर वारसी
सूफ़ी लेख
आदाब-ए-समाअ’ पर एक नज़र - मैकश अकबराबादी
इन सब क़ैदों से मक़सूद सिर्फ़ एक है और वो ये कि जमई’यत-ए-ख़ातिर और मज़ाक़-ए-सोह्बत को