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ना'त-ओ-मनक़बत
गुल-ए-बुस्तान-ए-मा'शूक़ी मह-ए-ताबान-ए-महबूबीनिज़ामुद्दीन सुल्तान-उल-मशाइख़ जान-ए-महबूबी
हसरत अजमेरी
शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
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फ़ारसी सूफ़ी काव्य
बुती कू ज़ोहरा-ओ-मह रा हमा शब शेवा आमोज़ददो-चश्म-ए-ऊ ब-जादूई दो-चश्म-ए-चर्ख़ बर-दोज़द
रूमी
नज़्म
सैंकड़ों साल हुए जब न मिला था पानी
सैंकड़ों साल हुए जब न मिला था पानीआज तक है लब-ए-शब्बीर का प्यासा पानी
मुज़फ़्फ़र वारसी
ग़ज़ल
चमन-ए-मोहब्बत-ओ-इश्क़ में कई साल ख़ूब फ़ज़ा रहीमगर उस ने आँख जो फेर ली न गुल रहे न हवा रही
मुज़्तर ख़ैराबादी
गूजरी सूफ़ी काव्य
बन्दे हैं तेरी छब के मह से जमालवाले
बन्दे हैं तेरी छब के मह से जमालवाले,सब गुल से गालवाले, संबुल से बालवाले।
अब्दुल वली उज़लत
कलाम
ख़याल आया जो उस मह-रू को गुल-गश्त-ए-ख़ियाबाँ कानज़र कुछ और ही आने लगा 'आलम-ए-गुलिस्ताँ का
सय्यद अली केथ्ली
फ़ारसी कलाम
परतव-ए-महर-ए-क़दीमस्त ईं मह-ए-ताबान-ए-'इश्क़जल्वा-ए-नूर-ए-कलीमसत आतिश-ए-सोज़ान-ए-'इश्क़