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शे'र
नहीं लख़्त-ए-जिगर ये चश्म में फिरते कि मर्दुम ने
चराग़ अब करके रौशन छोड़े हैं दो-चार पानी में
शाह नसीर
ना'त-ओ-मनक़बत
फ़ना बुलंदशहरी
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ना'त-ओ-मनक़बत
दुनिया-ए-आश्ती की फबन मुजतबा-ए-हुस्न
लख़्त-ए-जिगर नबी का तो प्यारा 'अली का है
पीर नसीरुद्दीन नसीर
ग़ज़ल
नहीं लख़्त-ए-जिगर ये चश्म में फिरते कि मर्दुम ने
चराग़ अब करके रौशन छोड़े हैं दो-चार पानी में
शाह नसीर
कलाम
जला ही देगा तिफ़्ल-ए-अश्क दामान-ए-नज़र अपना
कि इक आतिश का पर काला है ये लख़्त-ए-जिगर अपना
ख़्वाजा अज़ीज़ुल हसन मज्ज़ूब
शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ पर
अकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है