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कलाम
सुख़न-सनजाँ साहिब-ए-दिल है क़द्र उस की समझते हैंबदल है ये मिरा दीवान दीवान-ए-नज़ीरी का
ग़ुलाम अ’ली रासिख़
कलाम
क़ुर्बान-ए-फ़ना एक तजल्ली-ए-तेरी होएज़ुल्मत-कदा-ए-हस्तती-ए-मौहूम से निकले
मिर्ज़ा मोहम्मद अली फ़िदवी
कलाम
सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ कावो इक गुलदस्ता है हम बे-ख़ुदों के ताक़-ए-निस्याँ का
मिर्ज़ा ग़ालिब
कलाम
ढूँढ उस जगह किशवर-ए-’अली बाब-ए-’इल्म है’उक़्दा वहीं से होवे है हल मुश्किलात का
मिर्ज़ा मोहम्मद अली फ़िदवी
कलाम
मैं बुरा हूँ या भला हूँ मेरी लाज को निभानामुझे जानता है साजन तेरे नाम से ज़माना
मोहम्मद अली ज़ुहूरी
कलाम
इस क़दर आँखें मिरी महव-ए-तमाशा हो गईंपुतलियाँ पथरा के आख़िर संग-ए-मूसा हो गईं
ख़्वाजा हैदर अली आतिश
कलाम
पढ़ो 'साबिर' कोई ऐसी ग़ज़ल बज़्म-ए-सुख़न-दाँ मेंकि ऐसा कोई गुलदस्ता न हो गुलज़ार-ए-रिज़वाँ में
मिर्ज़ा क़ादिर बख़्श साबिर
कलाम
या है मरीज़-ए-'इश्क़ तू या है हकीम-ए-दर्द-मंदमरहम कहूँ या दर्द या दरमाँ कहूँ या क्या कहूँ
सादिक़ु अली शाह
कलाम
कहीं घाइल किए तीर-ए-निगाह-ए-नाज़नीं बन करकहीं वो ख़ून करते हैं अदा-ए-जाँ-सिताँ हो कर