आरज़ू पर अशआर
आरज़ूः ये असलन फ़ारसी
ज़बान का लफ़्ज़ है। इस्म-ए-जामिद है। उर्दू में अस्ली हालत और अस्ली मा’नी में ही मुस्त’मल है। उर्दू में सबसे पहले 1543 ई’स्वी में क़लमी नुस्ख़ा “भोग भल” में इसका इस्ति’माल मिलता है। इसका लुग़वी मा’नी तमन्ना, अरमान, इश्तियाक़, मिन्नत समाजत, इल्तिजा, ख़ुशामद वग़ैरा होता है।आरज़ू से मुतअ’ल्लिक़ सूफ़ी शो’रा के कलाम यहाँ पढ़ें।
साग़र की आरज़ू है न पैमाना चाहिए
बस इक निगाह-ए-मुर्शिद-ए-मयख़ाना चाहिए
आरज़ू ये है तुम्हारा आँचल आँखों से लगे
कुछ समझते हो कि हम रोते हुए आते हैं क्यूँ
आरज़ू हसरत तमन्ना मुद्दआ कोई नहीं
जब से तुम हो मेरे दिल में दूसरा कोई नहीं
हर आँख को है तिरी तमन्ना
हर दिल में तिरी ही आरज़ू है
आरज़ू है कि तिरा ध्यान रहे ता-दम-ए-मर्ग
शक्ल तेरी नज़र आए मुझे जब आए अजल
ये फ़रेब-ए-तस्कीं है तर्क-ए-आरज़ू मा’लूम
तर्क-ए-आरज़ू 'मैकश' ये भी आरज़ू ही है
कहीं रुख़ बदल न ले अब मिरी आरज़ू का धारा
वो बदल रहे हैं नज़रें मिरी ज़िंदगी बदल कर
इसे भी नावक-ए-जानाँ तू अपने साथ लेता जा
कि मेरी आरज़ू दिल से निकलने को तरसती है
दोनों जानिब अगर आरज़ू वस्ल की कोई तूफ़ाँ उठाए तो मैं क्या करूँ
इ’श्क़ उन्हें गुदगुदाए तो वो क्या करें हुस्न मुझ को बुलाए तो मैं क्या करूँ
आरज़ू हम नाख़ुदा की क्यूँ करें
अपनी कश्ती का तो अफ़सर और है
पहुँच जाती है किसी के गोश-ए-दिल तक
हमारी आरज़ू इतनी कहाँ है
रही ये आरज़ू आख़िर के दम तक
न पहुँचा सर मिरा तेरे क़दम तक
हसरत-ओ-यास-ओ-आरज़ू शौक़ का इक़्तिदा करें
कुश्ता-ए-ग़म की लाश पर धूम से हो नमाज़-ए-इ’श्क़
मुद्दतों से आरज़ू ये दिल में है
एक दिन तू घर हमारे आइए
उस वक़्त तक सुलगती रही उस की आरज़ू
जब तक धुएँ से सारा बदन भर नहीं गया
मिलें भी वो तो क्यूँकर आरज़ू बर आएगी दिल की
न होगा ख़ुद ख़याल उन को न होगी इल्तिजा मुझ से
तसव्वुर में वो आएँगे तो पूरी आरज़ू होगी
वो मेरे पास होंगे और उन से गुफ़्तुगू होगी
अब तो 'सादिक़' है ये आरज़ू
इ’श्क़ ही मेरी मंज़िल बने
न निकले जब कोई अरमाँ न कोई आरज़ू निकली
तो अपनी हसरतों का ख़ून होना इस को कहते हैं
हमारी आरज़ू दिल की तुम्हारी जुम्बिश-ए-लब पर
तमन्ना अब बर आती है अगर कुछ लब-कुशा तुम हो
बयान-ए-दर्द-आगीं है कहेगा जा के क्या क़ासिद
हदीस-ए-आरज़ू मेरी परेशाँ दास्ताँ मेरी
मुझे हर-क़दम तेरी जुस्तुजू मुझे हर-नफ़स तेरी आरज़ू
मुझे अपना ग़म है न ग़म-ए-जहाँ तेरी शान जल्ला-जलालुहु
सिखाई नाज़ ने क़ातिल को बेदर्दी की ख़ू बरसों
रही बेताब सीना में हमारी आरज़ू बरसों
लगते ही ठेस टूट गया साज़-ए-आरज़ू
मिलते ही आँख शीशा-ए-दिल चूर चूर था
कुछ आरज़ू से काम नहीं 'इ’श्क़' को सबा
मंज़ूर उस को है वही जो हो रज़ा-ए-गुल
मिरी आरज़ू के चराग़ पर कोई तब्सिरा भी करे तो क्या
कभी जल उठा सर-ए-शाम से कभी बुझ गया सर-ए-शाम से
ये आरज़ू है कि मे’राज-ए-ज़िंदगी हो जाए
ग़ुलाम की दर-ए-आक़ा पे हाज़िरी हो जाए
पूछते हैं वो आरज़ू 'कौसर'
दिल में अरमाँ एक हो तो कहूँ
साहिल की आरज़ू नहीं ता'लीम-ए-मुस्तफ़ा
ये नाव तो रोज़ानः ही मंजधार से हुई
'कौसर' वस्ल शाह-ए-हसीनाँ की आरज़ू
मुझ को नहीं जहाँ में हवस माल-ओ-जाह की
वो मल के दस्त-ए-हिनाई से दिल लहू करते
हम आरज़ू को हसीं ख़ून-ए-आरज़ू करते
दीजिए उन को कनार-ए-आरज़ू पर इख़्तियार
जब वो हों आग़ोश में बे-दस्त-ओ-पा हो जाइये
वो तजल्ली जिस ने दश्त-ए-आरज़ू चमका दिया
कुछ तो मेरे दिल में है और कुछ कफ़-ए-मूसा में है
सब कुछ ख़ुदा ने मुझ को दिया 'अर्श' बे-तलब
दुख़्तर की आरज़ू न तमन्ना पिसर की है
आरज़ू के दिल पे आएँगी न क्या क्या आफ़तें
दर-पय-ए-इंकार है ना-आश्नाई आप की
मुझे ऐश-ओ-ग़म में ग़रज़ नहीं अगर आरज़ू है तो है यही
कि उमंग बन के छुपा रहे कोई दिल के पर्दा-ए-राज़ में
आरज़ू लाज़िम है वज्ह-ए-आरज़ू हो या न हो
इल्तिफ़ात उस काफ़िर-ए-ख़ुद-बीं की ख़ूँ हो या न हो
उम्मीदें तुझ से थीं वाबस्ता लाखों आरज़ू लेकिन
बहुत हो कर तिरी दरगाह से बे-ए'तिबार आई
बहार आने की आरज़ू क्या बहार ख़ुद है नज़र का धोका
अभी चमन जन्नत-नज़र है अभी चमन का पता नहीं है
तेरे ग़म की हस्रत-ओ-आरज़ू है ज़बान-ए-इ’श्क़ में ज़िंदगी
जिन्हें मिल गया है ये मुद्दआ’ वो मक़ाम-ए-ज़ीस्त भी पा गए
ये आरज़ू है कि वो नामा-बर से ले काग़ज़
बला से फाड़ के फिर हाथ में न ले काग़ज़
मोहब्बत में सरापा आरज़ू-दर-आरज़ू मैं हूँ
तमन्ना दिल मिरा है और मिरे दिल की तमन्ना तू
मेरा दम भी समा'अ' में निकले
अब यही है इक आरज़ू ख़्वाजा
कलीम बात बढ़ाते न गुफ़्तुगू करते
लब-ए-ख़ामोश से इज़हार-ए-आरज़ू करते