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Sufinama

इल्म पर अशआर

इ’ल्मः इ’ल्म का लुग़वी

मा’नी जानना, आगाही, वाक़फ़ियत, पढ़ाई, ता’लीम वग़ैरा है।तसव्वुफ़ में ख़ुदा के अस्मा-ओ-सिफ़ात को जानने वाला आ’लिम और उसको जानने का अ’मल इ’ल्म कहलाता है।

गर तू अफ़लातून-ओ-लुक़मानी ब-इ'ल्म

मन ब-यक दीदार नादानत कुनम

रूमी

पढ़ पढ़ इ’ल्म हज़ार कताबाँ आ’लिम होए भारे हू

हर्फ़ इक इ’श्क़ दा पढ़ जाणन भुल्ले फिरन विचारे हू

सुल्तान बाहू

नहीं थी इ’ल्म कू वहाँ कुछ तमीज़

इज्माले वहदत में पाया अ’ज़ीज़

अज्ञात

वही इंसान है 'एहसाँ' कि जिसे इल्म है कुछ

हक़ ये है बाप से अफ़्ज़ूँ रहे उस्ताद का हक़

अ’ब्दुल रहमान एहसान देहलवी

कमाल-ए-इ’ल्म-ओ-तहक़ीक़-ए-मुकम्मल का ये हासिल है

तिरा इदराक मुश्किल था तिरा इदराक मुश्किल है

सीमाब अकबराबादी

तुम्हें इ’ल्म कुछ जो हो आलिमों तो बता दो मुझ को चुप रहो

कि शराब-ए-इ’श्क़ का मस्त हूँ ये हलाल है कि हराम है

अ‍र्श गयावी

इ'ल्म वालों को शहादत का सबक़ तू ने दिया

मर के भी ज़िन्दा रहे इंसाँ ये हक़ तू ने दिया

मुज़फ़्फ़र वारसी

इतनी बात बूझी लोगाँ आप निभाता करी सो कुए

इ’ल्म क़ुदरत जिस थोरा होवे की मजबूर विचारा होए

शाह अली जीव गामधनी

इ'ल्म और फ़ज़्ल के दीन-ओ-ईमान के अ'क़्ल पर मेरी 'काविश' थे पर्दे पड़े

सारे पर्दे उठा कर कोई अब मुझे अपना जल्वा दिखाए तो मैं क्या करूँ

गुंग हो जाएँ बस इक आन में सब अहल-ए-ज़बाँ

एक उम्मी को जो तू इल्म का मसदर कर दे

सत्तार वारसी

या-रहमतल-लिलआलमीन

आईनः-ए-रहमत बदन साँसें चराग़-ए-इ’ल्म-ओ-फ़न

मुज़फ़्फ़र वारसी

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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