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Sufinama

इज़हार पर अशआर

इज़हारः इज़हार का लुग़वी

मा’नी है ज़ाहिर करना या बयान करना। वो बयान जो अ’दालत या हाकिम के रूबरू दिया जाता है उसे भी इज़हार कहा जाता है। किसी फ़रीक़-ए- मुक़द्दमा या गवाह वग़ैरा के बयान को भी इज़हार कहा जाता है।सूफ़ी शो’रा ने लफ़्ज़-ए-इज़हार को किन मा’नी में इस्ति’माल किया है उन्हें यहाँ पढ़ें।

अश्कों ने बयाँ कर ही दिया राज़-ए-तमन्ना

हम सोच रहे थे अभी इज़हार की सूरत

वासिफ़ अली वासिफ़

मजबूर-ए-सुख़न करता है क्यूँ मुझ को ज़माना

लहजा मिरे जज़्बात का इज़हार कर दे

मुज़फ़्फ़र वारसी

वोई मारे अनल-हक़ दम करे इज़हार सिर्र बहम

कोई बाँधै कमर मोहकम जो आपे-आप सूँ लड़ना

क़ादिर बख़्श बेदिल

बाम पर आने लगे वो सामना होने लगा

अब तो इज़हार-ए-मोहब्बत बरमला होने लगा

हसरत मोहानी

शक्ल-ए-आदम के सिवा और भाया नक़्शा

सारे आ’लम में ये इज़हार है अल्लाह अल्लाह

मरदान सफ़ी

कौन है किस से करूँ दर्द-ए-दिल अपना इज़हार

चाहता हूँ कि सुनो तुम तो कहाँ सुनते हो

मीर मोहम्मद बेदार

असरार-ए-मोहब्बत का इज़हार है ना-मुम्किन

टूटा है टूटेगा क़ुफ़्ल-ए-दर-ए-ख़ामोशी

बेदम शाह वारसी

हम से कहते हैं करेंगे आज इज़हार-ए-करम

इस से कुछ मतलब नहीं महफ़िल में तू हो या हो

हसरत मोहानी

और भी उन ने 'बयाँ' ज़ुल्म कुछ अफ़्ज़ूद किया

किया उस शोख़ से तीं इश्क़ का इज़हार अबस

एहसनुल्लाह ख़ाँ बयान

ख़ुश नहीं इफ़शा-ए-राज़-ए-दिल-रुबा पेश-ए-उमूम

हातिफ़-ए-ग़ैबी मुझे इज़हार कहता है कि बोल

तुराब अली दकनी

तब हुआ इज़हार ए'जाज़-ए-असा-ए-मूसवी

जब चोब-ए-ना-तराशीदा के तईं सोहन किया

तुराब अली दकनी

‘बेदार’ करूँ किस को में इज़हार-ए-मोहब्बत

बस दिल है मिरा महरम-ए-असरार-ए-मोहब्बत

मीर मोहम्मद बेदार

कलीम बात बढ़ाते गुफ़्तुगू करते

लब-ए-ख़ामोश से इज़हार-ए-आरज़ू करते

रियाज़ ख़ैराबादी

कहीं है अ’ब्द की धुन और कहीं शोर-ए-अनल-हक़ है

कहीं इख़्फ़ा-ए-मस्ती है कहीं इज़हार-ए-मस्ती है

बेदम शाह वारसी

एक दिन तुझ को दिखाऊँगा मैं इन ख़ूबाँ को

दावा-ए-यूसुफ़ी करते तो हैं इज़हार बहुत

मीर मोहम्मद बेदार

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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