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Sufinama

क़िस्मत पर अशआर

क़िस्मतः क़िस्मत अ’रबी

ज़बान से मुश्तक़ इस्म है। अ’रबी से उर्दू में हक़ीक़ी मा’नों और साख़्त के साथ दाख़िल हुआ है और इस्म के तौर पर इस्ति’माल होता है।सबसे पहले 1657 ई’स्वी में “गुलशन-ए-इ’श्क़” में इसका इस्ति’माल मिलता है। इसका मा’नी तक़दीर, मुक़द्दर, नसीब वग़ैरा होता है।सूफ़ी शो’रा के यहाँ इसका इस्ति’माल कुछ निराले अंदाज़ में हुआ है। क़िस्मत से मुतअ’ल्लिक़ ख़ूबसूरत अश्आ’र यहाँ पढ़ें।

क़िस्मत जागे तो हम सोएँ क़िस्मत सोए तो हम जागें

दोनों ही को नींद आए जिसमें कब ऐसी रातें होती हैं

आरज़ू लखनवी

मिला है जो मुक़द्दर में रक़म था

ज़हे क़िस्मत मिरे हिस्से में ग़म था

वासिफ़ अली वासिफ़

अगर हम तुम सलामत हैं कभी खुल जाएगी क़िस्मत

इसी दौर-ए-लयाली में इसी गर्दूं के चक्कर में

राक़िम देहलवी

कजी मेरी क़िस्मत की फिर देखना

ज़री अपनी तिरछी नज़र देखिये

बेदम शाह वारसी

बिगाड़ क़िस्मत का क्या बताऊँ जो साथ मेरे लगी हुई है

कहीं कहीं से कटी हुई है कहीं कहीं से मिटी हुई है

मुज़्तर ख़ैराबादी

कुछ हो इंक़िलाब-ए-आसमाँ इतना तो हो

ग़ैर की क़िस्मत बदल जाए मेरी तक़दीर से

बेदम शाह वारसी

उन को गुल का मुक़द्दर मिला

मुझ को शबनम की क़िस्मत मिली

फ़ना निज़ामी कानपुरी

ख़ुशी से दूर हूँ ना-आश्ना-ए-बज़्म-ए-इ’शरत हूँ

सरापा दर्द हूँ वाबस्ता-ए-ज़ंजीर-क़िस्मत हूँ

शाह मोहसिन दानापुरी

देखना उन का तो क़िस्मत में नहीं

देखने वाले को देखा चाहिए

बेदम शाह वारसी

बदलती ही नहीं क़िस्मत मोहब्बत करने वालों की

तसव्वुर यार का जब तक 'फ़ना' पैहम नहीं होता

फ़ना बुलंदशहरी

लज़्ज़तें दीं ग़ाफ़िलों को क़ासिम-ए-हुशियार ने

इ’श्क़ की क़िस्मत हुई दुनिया में ग़म खाने की तरह

ख़्वाजा रुक्नुद्दीन इश्क़

चमक उट्ठी है क़िस्मत एक ही सज्दः में क्या कहना

लिए फिरता है पेशानी पे नक़्श-ए-आस्ताँ कोई

अफ़क़र मोहानी

अपनी क़िस्मत पे फ़रिश्तों की तरह नाज़ करूँ

मुझ पे हो जाए अगर चश्म-ए-इ’नायत तेरी

फ़ना बुलंदशहरी

तकिए में क्या रखा है ख़त-ए-ग़ैर की तरह

देखूँ तो मैं नविश्ता-ए-क़िस्मत मिरा हो

बेदम शाह वारसी

बने शो'ले बिजली के क़िस्मत से मेरी

जो तिनके थे कुछ आशियाने के क़ाबिल

रियाज़ ख़ैराबादी

ये भी क़िस्मत का लिखा अपनी कि उस ने यारो

ले के ख़त हाथ से क़ासिद की मेरा खोला

शाह नसीर

ये क़िस्मत दाग़ जिस में दर्द जिस में

वो दिल हो लूट दस्त-ए-नाज़नीं पर

रियाज़ ख़ैराबादी

क़िस्मत की ना-रसाइयाँ बा'द-ए-फ़ना रहीं

मर के भी दफ़्न हो सका कू-ए-यार में

हैरत शाह वारसी

क़ासिद-ए-अश्क़-ओ-पैक सबा उस तक पयाम-ओ-ख़त पहुँचा

तुम क्या करो हाँ क़िस्मत का लिखा ये भी हुआ वो भी हुआ

शाह नसीर

वाए क़िस्मत शम्अ' पूछे भी परवानों की बात

और बे-मिन्नत मिलें बोसे लब-ए-गुल-गीर को

बेनज़ीर शाह वारसी

मलामत ही लिखी है सर-बसर क्या

मिरी क़िस्मत में तेरे पासबाँ से

हसरत मोहानी

मुरीद-ए-पीर-ए-मय-ख़ाना हुए क़िस्मत से नासेह

झाड़ें शौक़ में पलकों से हम क्यूँ सहन-ए-मय-ख़ाना

इब्राहीम आजिज़

उस की नाकामी-ए-क़िस्मत पर कहाँ तक रोइए

ग़र्क़ हो जाए सफ़ीन: जिस का साहिल के क़रीब

अफ़क़र मोहानी

एक दिन वो मेरे घर है एक दिन वो उस के घर

ग़ैर की क़िस्मत भी है मेरे मुक़द्दर का जवाब

अमीर मीनाई

क़िस्मत ने आह हम को ये दिन भी दिखा दिए

क़िस्मत पे ए'तिबार किया हाए क्या किया

बह्ज़ाद लखनवी

रह के आग़ोश में बहर-ए-करम आशिक़ को

क़िस्मत-ए-सोख़्तः-ए-सब्ज़ः-ए-साहिल देना

आसी गाज़ीपुरी

छटेगी कैसे 'मुज़फ़्फ़र' सियाही क़िस्मत की

निकल तो आएगा ख़ुर्शीद रात ढलने से

मुज़फ़्फ़र वारसी

जल्वा-ए-हर-रोज़ जो हर सुब्ह की क़िस्मत में था

अब वो इक धुँदला सा ख़्वाब-ए-दोश है तेरे बग़ैर

सीमाब अकबराबादी

हाए उस मर्द की क़िस्मत जो हुआ दिल का शरीक

हाए उस दिल का मुक़द्दर जो बना दिल मेरा

जिगर मुरादाबादी

मेरी आँख का तारा है आँसू मेरी क़िस्मत का

क़िस्मत को मैं रोता हूँ क़िस्मत मुझ को रोती है

रियाज़ ख़ैराबादी

निगाह-ए-यार जिसे आश्ना-ए-राज़ करे

वो अपनी ख़ूबी-ए-क़िस्मत पे क्यूँ नाज़ करे

हसरत मोहानी

कोशिश तो बहुत की मैं ने मगर क़िस्मत की थी कुछ अपनी ख़बर

ले सब्र से काम दिल-ए-मुज़्तर जब दाद नहीं फ़रियाद कर

महबूब वारसी गयावी

विसाल-ए-यार जब होगा मिला देगी कभी क़िस्मत

तबीअ'त में तबीअ'त को दिल-ओ-जाँ में दिल-ओ-जाँ को

राक़िम देहलवी

हसीनों ने क़िस्मत में इस्लाह दी

नसीबों का लिक्खा धरा रह गया

मुज़्तर ख़ैराबादी

सदा ही मेरी क़िस्मत जूँ सदा-ए-हल्क़ा-ए-दर है

अगर मैं घर में जाता हूँ तो वो बाहर निकलता है

अ’ब्दुल रहमान एहसान देहलवी

'मुज़्तर' मुझे चाहत में सज्दों की ज़रूरत क्या

ख़ाक-ए-दर-ए-जानाँ ने क़िस्मत मिरी चमका दी

मुज़्तर ख़ैराबादी

बता कर शोख़ियाँ उस को अदा की

डुबोई हम ने क़िस्मत मुद्दआ' की

राक़िम देहलवी

फिर उम्मीदों को शुआ'-ए-कामरानी कर अता

क़िस्मत-ए-तारीक को हंगामः-ए-तनवीर दे

सय्यदा ख़ैराबादी

माथा मैं रगड़ता हूँ क़िस्मत मिरी चमका दे

तुझ में तो शरारे हैं संग-ए-दर-ए-जानाना

मुज़्तर ख़ैराबादी

हिज्र के आलाम से छूटूं ये क़िस्मत में नहीं

मौत भी आने का गर वा’दा करे बावर ना हो

रज़ा फ़िरंगी महल्ली

जान छूटे उलझनों से अपनी ये क़िस्मत नहीं

मौत भी आए तो मरने की मुझे फ़ुर्सत नहीं

अ‍र्श गयावी

‘दर्द’ के दिल को बना मख़्ज़न-ए-फ़व्वारा-ए-नूर

मेरी तारीकी-ए-क़िस्मत के उजाले साक़ी

दर्द काकोरवी

सय्याद और गुलचीं दोनों की बन पड़ी है

बुलबुल की फूटी क़िस्मत फ़स्ल-ए-बहार क्या है

हसन इमाम वारसी

नज़र-अफ़ज़ोई-ए-शम-ए-तजल्ली ज़हे-क़िस्मत

कहाँ बज़्म-ए-जमाल उन की कहाँ परवानगी अपनी

ज़की वारसी

चरके वो दिए दिल को महरूमी-ए-क़िस्मत ने

अब हिज्र भी तन्हाई और वस्ल भी तन्हाई

सूफ़ी तबस्सुम

हम तल्ख़ी-ए-क़िस्मत से हैं तिश्ना-लब-ए-बादा

गर्दिश में है पैमाना पैमाने से क्या कहिए

सीमाब अकबराबादी

'रियाज़' अपनी क़िस्मत को अब क्या कहूँ में

बिगड़ना तो आया सँवरना आया

रियाज़ ख़ैराबादी

वो अ’ज़्म बाक़ी रज़्म बाक़ी शौकत-ओ-शान-ए-बज़्म बाक़ी

हमारी हर बात मिट चुकी है कि हम को क़िस्मत मिटा रही है

सय्यदा ख़ैराबादी

ख़त-ए-क़िस्मत मिटाते हो मगर इतना समझ लेना

ये हर्फ़-ए-आरज़ू हाथों की रंगत ले के उट्ठेंगे

मुज़्तर ख़ैराबादी

तिरा ग़म सहने वाले पर ज़माना मुस्कुराता है

मगर हर शख़्स की क़िस्मत में तेरा ग़म नहीं होता

अज़ीज़ वारसी देहलवी

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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