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दीनदयाल गिरि

दीनदयाल गिरि

दोहा 10

केहरि को अभिषेक कब, कीन्हों विप्र समाज।

निज भुज बल के तेज तें, विपिन भयो मृगराज।।

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जा मन होये मलीन सो, पर संपदा सहै न।

होत दुखी चित चोर कों, चितै चंद रुचि रैन।।

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नहीं रूप, कछु रूप है, विधा रूप निधान।

अधिक पूजियत रूप ते, बिना रूप विद्वान।।

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बचन तजैं नहिं सतपुरुष, तजै प्रान बरु देस।

प्रान पुत्र दुहुं परिहरयो, बचन हेत अवधेस।।

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सरल सरल तें होय हित, नहीं सरल अरु बंक।

ज्यों सर सूधहि कुटिल धनु, डारै दूर निसंक।।

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कवित्त 1

 

कुंडलिया 17

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