दीनदयाल गिरि के दोहे
बचन तजैं नहिं सतपुरुष, तजै प्रान बरु देस।
प्रान पुत्र दुहुं परिहरयो, बचन हेत अवधेस।।
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सरल सरल तें होय हित, नहीं सरल अरु बंक।
ज्यों सर सूधहि कुटिल धनु, डारै दूर निसंक।।
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नहीं रूप, कछु रूप है, विधा रूप निधान।
अधिक पूजियत रूप ते, बिना रूप विद्वान।।
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केहरि को अभिषेक कब, कीन्हों विप्र समाज।
निज भुज बल के तेज तें, विपिन भयो मृगराज।।
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तहां नहीं कछु भय जहां, अपनी जाति न पास।
काठ बिना न कुठार कहुं, तरु को करत बिनास।।
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पराधीनता दुख महा, सुख जग मे स्वाधीन।
सुखी रमत सुक बन विषे, कनक पींजरे दीन।।
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जा मन होये मलीन सो, पर संपदा सहै न।
होत दुखी चित चोर कों, चितै चंद रुचि रैन।।
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तूठे जाके फल नहीं, रूठे बहु भय होय।
सेव जु ऐसे नृपति क, अति दुरमति ते लोय।।
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बहु छुद्रन के मिलन ते, हानि बली की नाहिं।
जूथ जम्बूकन तें नहीं, केहरि कहुं नसि जाहिं।।
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इक बाहर इक भीतरें, इक मृदु दुहु दिसि पूर।
सोहत नर जग त्रिविध ज्यों, बेर बदाम अंगूर।।
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere