संपूर्ण
ग़ज़ल19
शे'र25
परिचय
कलाम23
फ़ारसी सूफ़ी काव्य4
ना'त-ओ-मनक़बत12
सलाम1
गीत3
कृष्ण भक्ति सूफ़ी कलाम2
अब्दुल हादी काविश का परिचय
मौलाना अ’ब्दुल हादी ख़ाँ काविश रामपुरी के वालिद का नाम पीर मुहम्मद ख़ां था ये पेठानी क़ौम से तअ’ल्लुक़ रखते थे, क़िला सैफ़ुल्लाह ख़ां कोयटा बलूचिस्तान से ब-ग़र्ज़-ए-ता’लीम 1930 ई’स्वी में राम पूर आए ता’लीम हासिल की और रामपुर को ही वतन-ए-सानी बनाकर यहीं के हो रहे, आपकी शादी रामपुर में अ’ब्दुल लतीफ़ ख़ां की साहब-ज़ादी से हुई जिनके बतन से चार लड़के और चार लड़कीयाँ पैदा हुईं, दो लड़कियाँ और एक लड़का सिगर-ए-सिन्नी में ही फ़ौत हो गईं, बाक़ी तीन लड़कों में से अ’ब्दुल हादी ख़ां काविश मँझले लड़के थे, दो भाई और बहन पाकिस्तान चले गए। ‘काविश’ ने इब्तिदाई ता’लीम घर में पाई फिर मदरसा मतलउ’ल-उ’लूम में ता’लीम हासिल की, मदरसा आ’लिया रामपुर से फ़ारिग़ुत्तहसील हैं, लखनऊ यूनीवर्सिटी से फ़ाज़िल तफ़्सीर किया और इलाहाबाद बोर्ड से आ’लिम-ओ-फ़ाज़िल दीनयात, आगरा यूनीवर्सिटी से बी.ए रोहिल खंड यूनीवर्सिटी से उर्दू में एम.ए की डिग्री हासिल की, जामिआ’ उर्दू अ’लीगढ़ से अदीब कामिल का इम्तिहान पास किया, कई साल मदरसा जामिउ’ल-उ’लूम फ़ोकानिया और मदरसा जामिउ’ल-मा’रफ़ रामपुर में अ’रबी के मुदर्रिस रहे और अब मदरसा मत्लउ’ल-उ’लूम में हदीस का दरस दिया, उन्हें अकाबिर ओलमा-ओ-सूफ़िया की सोह्बत भी हासिल रही, हज़रत सय्यद हबीब हसन और हज़रत शाह आबिद अ’ली ख़ां से काफ़ी अ’क़ीदत भी रखते थे, उन्हीं से बैअ’त भी कर चुके थे, सिलसिला-ए-चिश्तिया क़ादरिया के ज़बरदस्त पैरु-कार थे, इन दो बुज़ुर्ग के अ’लावा शाह वजीहुद्दीन अहमद ख़ां मुजद्दिदी रामपुरी और शाह अ’ब्दुल क़दीर पीलीभीती से इक्तिसाब-ए-फ़ैज़ किया शे’र-ओ-शाइ’री में हकीम महमूद अ’ली ख़ाँ कौकब बिलासपुरी (मुत्तसिल रामपुर के शागिर्द हुए, काविश शाइ’री में अपने जुज़-ओ-कुल को कौकब बिलासपुरी का मानते थे, काविश सिर्फ़ शाइ’र ही नहीं थे बल्कि एक मुतदय्यन आ’लिम और उ’लूम मश्रिक़ीय्या के उस्ताद-ए-मोह्तरम भी थे, उन्हें इ’ल्म-ओ-अदब, शे’र-ओ-सुख़्न, हक़ीक़त-ओ-मा’रफ़त से बे-पनाह दिलचस्पी थी। अ’ब्दुलाह ख़ां ‘काविश’ लिखते हैं कि “ये इ’श्क़-ए-हक़ीक़ी मुर्शिद-ए-कामिल का अ’तिया होता है, इसलिए तालिब-ए-सादिक़ पर लाज़िम है कि वो काफ़ी ग़ौर-ओ-ख़ौज़ के बा’द सिद्क़-दिल से किसी मुर्शिद-ए-कामिल का दामन थाम ले, मुर्शिद-ए-कामिल की मिसाल फल देने वाले साया-दार दरख़्त की सी है जो फल भी देता है और साया भी मुर्शिद-ए-कामिल तालिब-ए-सादिक़ को राह-ए-सुलूक में शैतानी वसावस से भी बचाता है और वस्ल-ए-मत्लूब का समर भी बहम पहुँचाता है ना’त-गोई और ग़ज़ल गोई में तब्अ’-आज़माई ख़ूब करते थे, आपके कलाम में तसव्वुफ़ का रंग नुमायाँ है, काविश ने चूँ कि अपनी उ’म्र-ए-अ’ज़ीज़ ओ’लमा-ए-किराम और सूफ़िया-ए-उज़्ज़ाम की सोह्बतों में बनाई, इस लिए आपको शरीअ’त-ए-इस्लामिया के साथ-साथ सुलूक-ओ-मा’रफ़त से क़लबी लगाव था जिसका लाज़िमी नतीजा इ’श्क़-ए-रसूल और मोहब्बत-ए-रसूल है जो ‘काविश’ के मज्मूआ’-ए-कलाम में शामिल ना’तों और ग़ज़लियात से ज़ाहिर है।