रामसहाय दास के दोहे
सतरोहै मुख रुख किये, कहै रुखौंहैं बैन।
रैन जगे के नैन ये, सने सनेहु दुरै न।।
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गुलुफन लौं ज्यों त्यों गयो, करि करि साहस जोर।
फिर न फिरयो मुरवानि चपि, चित अति खात मरोर।।
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पोखि चन्दचूड़हि अली, न खनहुं सूखन देइ।
खिनखिन खोटति नखनछद, न खनहुं सूखन देइ।।
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ल्याई लाल निहारिये, यह सुकुमारि बिभाति।
कुचके उचके भात तें, लचकि लचकि कटि जाति।।
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मनरंजन तब नाम को, कहत निरंजन लोग।
जदपि अधर अंजन लगे, तदपि न नीदन जोग।।
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सखि संग जात हुती सुती, भट भेरो भो जानि।
सतरौंही भौंहन करी, बतरौंहीं अखियानि।।
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खंजन कंज न सरि लहैं, बलि अलि को न बखानि।
एनी की अंखियान तें, ये नीकी अंखियानि।।
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भौह उचै अंखिया नचै, चाहि कुचै सकुचाय।
दरपन मैं मुख लखि खरी, दरप भरी मुसुकाय।।
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सीस झरोखे डारि कै, झांकी घूंघुट टारि।
कैबर सी कसकै हिये, बांकी चितवनि नारि।।
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बेलि कमान प्रसून सर, गहि कमनैत बसंत।
मारि मारि बिरहीन के, प्रान करै री अन्त।।
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere