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ना'त-ओ-मनक़बत
करता हूँ हर काम का आग़ाज़ तेरे नाम सेमिलती है तब कामयाबी ख़ालिक़-ए-कौन-ओ-मकाँ
सद्दाम हुसैन नाज़ाँ
ग़ज़ल
बस अब क्या ग़म ये सुन ली है बशारत पीर-ए-कामिल कीसफ़ीर-ए-कामयाबी हैं यही नाकामियाँ दिल की
ख़्वाजा अज़ीज़ुल हसन मज्ज़ूब
व्यंग्य
मुल्ला नसरुद्दीन- तीसरी दास्तान
उमीद थी कि वह वक़्त भी आयेगा जब इंसान अपनी ज़िन्दगी के निज़ाम को बदलेगा और
लियोनिद सोलोवयेव
सूफ़ी लेख
क़व्वाली का माज़ी और मुस्तक़बिल
ये तो ज़ाहिर है कि अब पुरानी क़व्वाली को अपनी असली शक्ल में पहले जैसी मक़्बूलियत
मुनादी
सूफ़ी लेख
अमीर ख़ुसरो के अ’हद की देहली - हुस्नुद्दीन अहमद
” एक ज़माना में मेरा ठिकाना क़िबला-ए-इस्लाम देहली था जो तमाम दुनिया के बादशाहों का क़िबला
मुनादी
सूफ़ी लेख
समकालीन खाद्य संकट और ख़ानक़ाही रिवायात
मुझे ये लंबी तम्हीद इसलिए बाँधनी पड़ी ताकि भूक और ख़ुराक की क़िल्लत जैसे आ’लमी बोहरान
रहबर मिस्बाही
व्यंग्य
मुल्ला नसरुद्दीन- पहली दास्तान
व्यापारियों के एक काफ़िले के साथ, जिसके पीछे वह लग लिया था, उसने बुख़ारा की सरहद