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कविता
काफ़ी - वाह फ़रीदा वाहु जिन लाए प्रेम कली
बिने चेते किछ न मिलै पहरा करन कलीऊठ क़तराँ वेदियां हज़रत पकड़ खली
बाबा फ़रीद
ना'त-ओ-मनक़बत
यज़ीदी फ़ौज का पहरा है आज चारों तरफ़तुम्हारी फिर है ज़रूरत हुसैन ज़िंदाबाद
तुफ़ैल अहमद मिसबाही
ना'त-ओ-मनक़बत
पहरा देते हैं जो नामूस-ए-रिसालत पे सदाज़िंदा-दिल बस वही इंसान कहे जाते हैं
उवेस रज़ा अम्बर
ना'त-ओ-मनक़बत
मेरी क़िस्मत की क़सम खाएँ सगान-ए-बग़दादहिन्द में भी हूँ तो देता रहूँ पहरा तेरा
अहमद रज़ा ख़ान
कलाम
सिपुर्द-ए-बे-ख़ुदी कर दे फ़राएज़ अक़्ल-ए-ख़ुद-बीं केहटा दे इस सियह-बातिन का पहरा ख़ाना-ए-दिल से
एहसान दानिश
कलाम
फ़ना बुलंदशहरी
सूफ़ी लेख
सतगुरू नानक साहिब
जिस्म की नज़र आने वाली आँख तस्वीर खींचने का कैमरा है,रास्ता दिखाने का वसीला है लेकिन
सूफ़ीनामा आर्काइव
सूफ़ी लेख
बहादुर शाह और फूल वालों की सैर
जंगली महल अब तो वाक़िई जंगली महल है। हाँ किसी ज़माना में बड़ा गद्दार महल था।
मिर्ज़ा फ़रहतुल्लाह बेग
सूफ़ी कहानी
कहानी -5-राजनीति- गुलिस्तान-ए-सा’दी
मैंने एक सिपाही को उग़लमश(एक राजा) के दरवाज़े पर पहरा लगाते देखा। वह नौजवान बड़ा अ’क़्लमन्द