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नज़्म
तल्बा से ख़िताब
तुम अपने दाग़-ए-मोहब्बत को ख़ूब चमका केशुआ-ए’-महर-ए-दरख़्शाँ को शर्मसार करो
बर्क़ वारसी
ग़ज़ल
फूले है गरचे बाग़ में बुलबुल हज़ार शाख़उस सर्व-क़द को देखे तो हो शर्मसार शाख़
ख़्वाजा रुक्नुद्दीन इश्क़
ग़ज़ल
सनम जिस वक़्त पूछेगा कि क्या लाया मिरी ख़ातिरमुझे होना लगेगा तब निहायत शर्मसार आख़िर
तुराब अली दकनी
फ़ारसी सूफ़ी काव्य
चूँ साद: शुद ज़े नक़्श हम: नक़्श-हा दरूस्तज़ाँ सादः-रू ज़े-रू-ए-कसे शर्मसार नीस्त
रूमी
ना'त-ओ-मनक़बत
किस मुँह से चल के आएँगे महशर में रू-ब-रूनादिम हैं शर्मसार हैं सरकार-ए-दो-जहाँ