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कलाम
दिया होता किसी को दिल तो होती क़द्र भी दिल कीहक़ीक़त पोछिए जा कर किसी बिस्मिल से बिस्मिल की
अज्ञात
कलाम
ब-क़द्र-ए-फ़ितरत-ए-इंसानियत 'सीमाब' नादिम हूँमैं दानिस्ता नहीं करता हूँ हो जाती हैं तक़्सीरें
सीमाब अकबराबादी
कलाम
क़द्र-दाँ 'मुसहफ़ी'-ओ-हज़रत-ए-'सौदा' थे 'अमीर'ले के तुर्बत पे उन्हीं की ये ग़ज़ल जाऊँगा
अमीर मीनाई
कलाम
हज़ारों मंज़िलें तय कर चुका अब अपनी हस्ती कोब-क़द्र-ए-हर-नफ़स आसूदा-ए-मंज़िल समझता हूँ
सीमाब अकबराबादी
कलाम
न क़द्र-दाँ न कोई हम-ज़बाँ न इंसाँ-दोस्तफ़ज़ा-ए-शहर से बेहतर हैं अब तो वीराने
पीर नसीरुद्दीन नसीर
कलाम
ग़म हूँ रह-ए-तलब में ब-क़द्र-ए-कमाल-ए-ज़ौक़मुझ को दिमाग़-ए-साहिल-ओ-मंज़िल नहीं रहा
सीमाब अकबराबादी
कलाम
तुझ से हर चंद वो हैं क़द्र-ओ-फ़ज़ाइल में रफ़ी’कर 'नसीर' आज मगर फ़िक्र-ए-रज़ा की तौसी'
पीर नसीरुद्दीन नसीर
कलाम
सुख़न-सनजाँ साहिब-ए-दिल है क़द्र उस की समझते हैंबदल है ये मिरा दीवान दीवान-ए-नज़ीरी का