चराग़ पर अशआर
चराग़/शम्अ’: चराग़ या
शम्अ’ में तीन ख़ुसूसिय्यात पाई जाती हैं।एक रौशनी देना, दूसरी जलना और तीसरी परवाना की निस्बत से समझी जाती है जो इ’श्क़ की अ’लामत है। तसव्वुफ़ में ये तीनों ख़ुसूसिय्यात बड़ी अहमियत की हामिल हैं ।सूफ़ी शो’रा ने इन तीनों ख़ुसूसिय्यात को बतौर-ए-इस्तिआ’रा इस्ति’माल किया है। शम्अ’ के गिर्द परवाना चक्कर लगाता है और आख़िर जल कर मर जाता है।शम्अ’ का इस्तिआ’रा सूफ़ी शो’रा ने महबूब-ए-हक़ीक़ी से लिया है।सालिकीन गोया परवाने हैं जो अपने महबूब के इ’श्क़ में गोया जलते रहते हैं।
मिरी आरज़ू के चराग़ पर कोई तब्सिरा भी करे तो क्या
कभी जल उठा सर-ए-शाम से कभी बुझ गया सर-ए-शाम से
लगते हैं ये मेहर-ओ-माह-ओ-अंजुम
देहली के चराग़ ही का परतव
आ'शिक़ न हो तो हुस्न का घर बे-चराग़ है
लैला को क़ैस शम्अ' को पर्वान: चाहिए
मैं जलाता रहा तेरे लिए लम्हों के चराग़
तू गुज़रता हुआ सदियों की सवारी में मिला
मिरे आँसुओं के क़तरे हैं चराग़-ए-राह-ए-मंज़िल
उन्हें रौशनी मिली है तपिश-ए-दिल-ओ-जिगर से
मैं अँधेरी गोर हूँ और तू तजल्ली तूर की
रौशनी दे जा चराग़-ए-रू-ए-जानाना मुझे
'बेदम' तुम्हारी आँखें हैं क्या अर्श का चराग़
रौशन किया है नक़्श-ए-कफ़-ए-पा-ए-यार ने
कशिश चराग़ की ये बात कर गई रौशन
पतिंगे ख़ुद नहीं आते बुलाए जाते हैं
मिरे दाग़-ए-दिल वो चराग़ हैं नहीं निस्बतें जिन्हें शाम से
उन्हें तू ही आ के बुझाएगा ये जले हैं तेरे ही नाम से
बुझ रहे हैं चराग़ अश्कों के
कैसे ताबिंद: रात की जाए
नहीं आती किसी को मौत दुनिया-ए-मोहब्बत में
चराग़-ए-ज़िंदगी की लौ यहाँ मद्धम नहीं होती
नहीं लख़्त-ए-जिगर ये चश्म में फिरते कि मर्दुम ने
चराग़ अब करके रौशन छोड़े हैं दो-चार पानी में
चाँद सी पेशानी सिंदूर का टीका नहीं
बाम-ए-का'बा पर चराग़ इस ने जला कर रख दिया
न लाला-ज़ार बनाना मज़ार को न सही
चराग़ के आगे कभी शाम को जला देना
फ़िराक़ में हैं हम अंदाज़ दिल का पाए हुए
ये वो चराग़ है जलता है बे-जलाए हुए
अंधारे में पड़ा हूँ कसरत के वहम से
वहदानियत का लुत्फ़ सूँ रौशन चराग़ बख़्श
मैं वो गुल हूँ न फ़ुर्सत दी ख़िज़ाँ ने जिस को हँसने की
चराग़-ए-क़ब्र भी जल कर न अपना गुल-फ़िशाँ होगा
चराग़-ए-गोर न शम-ए-मज़ार रखते हैं
बस एक हम ये दिल-ए-दाग़दार रखते हैं
वो क्या हयात है जो तर्क-ए-बंदगी न हुई
चराग़ जलता रहा और रौशनी न हुई
गए पहलू से तुम क्या घर में हंगामा था महशर का
चराग़-ए-सुब्ह-गाही में जमाल-ए-शम-ए-अनवर में
सुब्ह नहीं बे-वज्ह जलाए लाले ने गुलशन में चराग़
देख रुख़-ए-गुलनार-ए-सनम निकला है वो लाला फूलों का
हुआ गुल मिरी ज़िंदगी का चराग़
नुमायाँ जो शाम-ए-मुसीबत हुई
बड़े ख़ुलूस से माँगी थी रौशनी की दुआ
बढ़ा कुछ और अँधेरा चराग़ जलने से
मिरे नशेमन में शान-ए-क़ुदरत के सारे अस्बाब हैं मुहय्या
हवा सफ़ाई पे है मुक़र्रर चराग़ बिजली जला रही है
मेहर-ए-ख़ूबाँ ख़ाना-अफ़रोज़-ए-दिल-अफ़सुर्दः है
शो'ला आब-ए-ज़ि़ंदगानी-ए-चराग़-ए-मुर्दः है
वो ज़ुल्मतें हैं रह-ए-ज़ीस्त में क़दम-ब-क़दम
चराग़-ए-दिल भी जलाएँ तो कुछ सुझाई न दे
आगे क़दम बढ़ाएँ जिन्हें सूझता नहीं
रौशन चराग़-ए-राह किए जा रहा हूँ मैं
अपना बना के ऐ सनम तुम ने जो आँख फेर ली
ऐसा बुझा चराग़-ए-दिल फिर ये कभी जला नहीं
जला हूँ आतिश-ए-फ़ुर्क़त से मैं ऐ शोअ'ला-रू याँ तक
चराग़-ए-ख़ाना मुझ को देख कर हर शाम जलता है
हाजत-ए-शम्अ क्या है तुर्बत पर
हम कि दिल सा चराग़ रखते हैं
झोंके नसीम-ए-सुब्ह के आ आ के हिज्र में
इक दिन चराग़-ए-हस्ती-ए-आशिक़ बुझाएँगे
साँसों की ओट ले के चला हूँ चराग़-ए-दिल
सीने में जो नहीं वो घुटन रास्ते में है
दाग़-ए-सोजाँ छोड़ कर आशिक़ ने ली राह-ए-अदम
पिसरो तुम को चराग़-ए-रहगुज़र दरकार था
अँधेरे लाख छा जाएँ उजाला कम नहीं होता
चराग़-ए-आरज़ू जल कर कभी मद्धम नहीं होता
हज़ार रंग-ए-ज़माना बदले हज़ार दौर-ए-नशात आए
जो बुझ चुका है हवा-ए-ग़म से चराग़ फिर वो जला नहीं है
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere