इश्क़ पर अशआर
इ’श्क़ /मोहब्बत: इ’श्क़-ओ-मोहब्बत
हम-मा’नी अल्फ़ाज़ हैं। आ’म तौर से मोहब्बत में बहुत ज़्यादा शिद्दत हो जाना इ’श्क़ कहलाता है लेकिन लुग़वी ऐ’तबार से दोनों में कोई फ़र्क़ नहीं है। इ’श्क़ को अ’शक़ा से निस्बत दी जाती है जो एक क़िस्म की बेल है कि जिस दरख़्त पर वो पैदा होती है दरख़्त को ख़ुश्क कर देती है।ग़ालिबान अमर-बेल भी इसी को कहते हैं। मुराद ये है कि सालिक का वजूद महबूब-ए-हक़ीक़ी में फ़ना हो जाता है और सिर्फ़ हक़ बाक़ी रहता है। इसे फ़ना-फ़िल्लाह की तरफ़ इशारा है।
मुझे इ’श्क़ ने ये पता दिया कि न हिज्र है न विसाल है
उसी ज़ात का मैं ज़ुहूर हूँ ये जमाल उसी का जमाल है
हर तमन्ना इ’श्क़ में हर्फ़-ए-ग़लत
आ’शिक़ी में मा'नी-ए-हासिल फ़रेब
इ’श्क़ माही दे लाइयाँ अग्गीं लग्गी कौण बुझावे हू
मैं की जाणाँ ज़ात इ’श्क़ जो दर दर जा झुकावे हू
इन्दर कलमा कल-कल करदा इ’श्क़ सिखाया कलमा हू
चोदाँ तबक़े कलमे अंदर छड किताबाँ अलमाँ हू
जिस मंज़ूल नूँ इ’श्क़ पहुँचावे, ईमान ख़बर न कोई हू
इ’श्क़ सलामत रक्खीं 'बाहू' देयाँ ईमान धरोई हू
अर-रूहो फ़िदाका फ़ज़िद हरक़ा यक शो'ला दिगर बर्ज़न इ’श्क़ा
मोरा तन मन धन सब फूँक दिया ये जाँ भी पियारे जला जाना
ईमान सलामत हर कोई मंगे इ’श्क़ सलामत कोई हू
जिस मंज़ल नूँ इ’श्क़ पहुँचावे ईमान ख़बर न कोई हू
मुर्शिद मक्का तालिब हाजी का’बा इ’श्क़ बड़ाया हू
विच हुज़ूर सदा हर वेले करिए हज सवाया हू
आ’शिक़ इ’श्क़ माही दे कोलों फिरन हमेशा खीवे हू
जींदे जान माही नूँ डित्ती दोहीं जहानीं जीवे हू
मज़मून ये 'इश्क़' दिल में मेरे आया
इस रम्ज़-ए-रिसालत को नज़र से पाया
हुस्न-मह्व-ए-रंग-ओ-बू है इ’श्क़ ग़र्क़-ए-हाय-ओ-हू
हर गुलिस्ताँ उस तरफ़ है हर बयाबाँ इस तरफ़
अंदर भाई अंदर बालण अंदर दे विच धूहाँ हू
शाह-रग थीं रब्ब नेड़े लद्धा इश्क़ कीताम जद सूहाँ हू
इ’श्क़ को बे-नक़ाब होना था
आप अपना जवाब होना था
आ’शिक़ हो ते इ’श्क़ कमा दिल रक्खीं वांग पहाड़ाँ हू
सै सै बदियाँ लक्ख उलाहमें, जाणीं बाग़-बहाराँ हू
इ'श्क़ में ऐसा इक आ'लम भी गुज़र जाता है
ज़हन-ओ-इदराक का एहसास भी मर जाता है
ईमान सलामत हर कोई मंगे इश्क़ सलामत कोई हू
माँगण ईमान शरमावण इश्क़ोंं दिल नूँ ग़ैरत होई हू
इश्क़ दी गल्ल अवल्ली जेहड़ा शरआ’ थीं दूर हटावे हू
क़ाज़ी छोड़ कज़ाई जाण जद इश्क़ तमाँचा लावे हू
इ’श्क़ ने तोड़ी सर पे क़यामत ज़ोर-ए-क़यामत क्या कहिए
सुनने वाला कोई नहीं रूदाद-ए-मोहब्बत क्या कहिए
इ’श्क़ ख़ुद माइल-ए-हिजाब है आज
हुस्न मजबूर-ए-इज़्तिराब है आज
दीवानः शुद ज़ू इ’श्क़ हम नागह बर-आवर्द आतिशी
शुद रख़्त-ए-शहरी सोख़त: ख़ाशाक-ए-ईं वीरानः हम
बुतों का इश्क़ हुआ जब नसीब वाइ'ज़
कि मुद्दतों किया पहले ख़ुदा ख़ुदा हम ने
इस चमन की सैर में ऐ गुल-एज़ार
'इ’श्क़' की आँखों में तूफ़ाँ या-नसीब
ये इ’श्क़ की है सरकार 'अहक़र' गु़स्सा भी यहाँ है प्यार भी है
हर ज़ख़्म-ए-जिगर के फाहे में काफ़ूर भी है ज़ंगार भी है
इ’श्क़ की बर्बादियों को राएगाँ समझा था मैं
बस्तियाँ निकलीं जिन्हें वीरानियाँ समझा था मैं
चु नै ख़ाली शुदम अज़ आरज़ूहा लैक इ'श्क़-ए-ऊ
ब-गोशम मी-दमद हर्फ़े कि मन नाचार मी-नालम
मंगण ईमान शरमावण इ’श्क़ोंं दिल नूँ ग़ैरत होई हू
इश्क़ सलामत रक्खीं 'बाहू' देयाँ ईमान धरोई हू
इ’श्क़ में पूजता हूँ क़िब्ला-ओ-काबा अपना
एक पल दिल को मिरे उस के बिन आराम नहीं
सोचा कभी न इ’श्क़ में कुछ प्यार के सिवा
हसरत कोई न की तेरे दीदार के सिवा
मक़्दूर क्या जो कह सुकूँ कुछ रम्ज़-ए-इ’श्क़ को
जूँ शम्अ' हूँ अगरचे सरापा ज़बान-ए-इ’श्क़
पाक-बाज़ी अपनी पैग़ाम-ए-तलब थी इश्क़ में
धो के दाग़-ए-तोहमत-ए-हस्ती सफ़र दरकार था
जिन्हाँ इ’श्क़ हक़ीक़ी पाया मूँहों ना अलावत हू
ज़िकर फ़िकर विच रहण हमेशा दम नूँ क़ैद लागवन हू
इ’श्क़ में तेरे कोह-ए-ग़म सर पे लिया जो हो सो हो
ऐ’श-ओ-निशात-ए-ज़िंदगी छोड़ दिया जो हो सो हो
जिस की नज़र 'इ’श्क़' के ऊपर पड़ी
चश्म के तईं अपनी वो तर कर गया
दिलबर में दिल या दिलबर दिल में है
'इ’श्क़' उस को बता किस तरह से ग़ैर कहूँ
पहुँचा है जब से इ’श्क़ का मुझ को सलाम-ए-ख़ास
दिल के नगीं पे तब से खुदाया है नाम-ए-ख़ास
हर क़दम के साथ मंज़िल लेकिन इस का क्या इ’लाज
इ’श्क़ ही कम-बख़्त मंज़िल-आश्ना होता नहीं
इ’श्क़ हर-चंद मिरी जान सदा खाता है
पर ये लज़्ज़त तो वो है जी ही जिसे पाता है
कोई क्या समझे कि क्या करता है इ’श्क़
हर दम इक फ़ित्नः बपा करता है इ’श्क़
इ’श्क़ असानूँ लिस्याँ जाता कर के आवे धाई हू
जित वल वेखां इ’श्क़ दिसीवे ख़ाली जा न काई हू
लज़्ज़तें दीं ग़ाफ़िलों को क़ासिम-ए-हुशियार ने
इ’श्क़ की क़िस्मत हुई दुनिया में ग़म खाने की तरह
'इ’श्क़' आ’शिक़ हुआ उसी कूँ देख
दिल-ए-नालाँ ब-रंग-ए-ऊ’द हुआ
हुस्न-ए-बुताँ का इ’श्क़ मेरी जान हो गया
ये कुफ़्र अब तो हासिल-ए-ईमान हो गया
हर घड़ी पेश-ए-नज़र इ’श्क़ में क्या क्या न रहा
मेरा दिल बस तिरी तस्वीर का दीवाना रहा
हाँ वही इ’श्क़-ओ-मोहब्बत की जिला होती है
जो इ’बादत दर-ए-जानाँ पे अदा होती है
ऐ इ’श्क़ अता कर दे ऐसा मुझे काशाना
जो का'बे का का'बा हो बुत-ख़ाने का बुत-ख़ाना
दिल इश्क़ में होता है माइल-ब-फ़ुग़ाँ पहले
जब आग सुलगती है उठता है धुआँ पहले
चलता हूँ राह-ए-इ’श्क़ में आँखों से मिस्ल-ए-अश्क
फूटें कहीं ये आबले सरसब्ज़ होवें ख़ार
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere