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बुल्ले शाह का परिचय
सी एफ़ इस्बूरन के एक किताबचा ब-उ’नवान “बुल्ले शाह” में बुल्ले शाह का साल-ए-वफ़ात 1680 ई’स्वी बयान किया गया है। “तारीख़ नाफ़ेउ’स्सालिकीन” के मुताबिक़ बुल्ले शाह के वालिद ने उनका नाम अ’ब्दुल्लाह शाह रखा था। बुल्ले शाह के वालिद सख़ी शाह मुहम्मद दरवेश ने अपने घरेलू हालात की वजह से औच गीला नयान का गाँव छोड़ दिया था। उस वक़्त बुल्ले शाह फ़क़त छः साल के थे और मुल्क वाल के इ’लाक़े में जा बसे थे। चौधरी पाँडव भट्टी किसी ज़ाती काम से मुल्क वाल के नज़्दीक तलवंडी में आए थे। उनको ये बात मा’लूम पड़ी कि वाल के में एक मौलवी आ कर बसे हैं। उस वक़्त पाँडव की मस्जिद के इमाम के फ़रीज़ा को अंजाम देने के लिए कोई मौलवी न था। चुनाँचे पाँडव भट्टी के हम-राह यहाँ के लोग मुत्तफ़िक़ा फ़ैसला के तहत शाह मुहम्मद दरवेश के पास पहुँचे और उन्होंने उनकी दरख़्वास्त क़ुबूल कर ली और अपने साज़-ओ-सामान के साथ पाँडव मुंतक़िल हो गए। यहाँ मस्जिद में रह कर शाह मुहम्मद दरवेश मस्जिद से मुतअ’ल्लिक़ ज़िम्मेदारियाँ सँभालने के साथ साथ ता’लीम-ओ-तर्बियत का भी बंद-ओ-बस्त किया। उसी मस्जिद में बुल्ले शाह अपने वालिद से इब्तिदाई इ’ल्म हासिल करने लगे। साथ ही वो गाँव में मवेशी चराने का काम भी करते थे। इस बात का कोई मुसद्दक़ा हवाला नहीं मिलता कि शाह मुहम्मद दरवेश के आबा-ओ-अज्दाद कहाँ से थे लेकिन फ़क़ीर मुहम्मद फ़क़ीर ये बयान करते हैं कि बुल्ले शाह बुख़ारी सादात के ख़ानदान में पैदा हुए थे। सख़ी मुहम्मद दरवेश का मक़बरा पाँडव की गाँव में है जहाँ बुल्ले शाह के यौम-ए-विसाल पर हर साल उ’र्स की तक़रीबात मुनअ’क़िद की जाती हैं। उस रोज़ दूर-दराज़ के क़व्वाल उनके रौज़ा पर हाज़िरी देते हैं और बुल्ले शाह की काफ़ियाँ पेश करते हैं। बुल्ले शाह के मुर्शिद शाह इ’नायत अगर्चे एक क़ादरी सूफ़ी थे लेकिन उनको शत्तारी दरवेश हज़रत रज़ा शाह शत्तारी ने सूफ़ियाना अ’ज़्मतों से रू-शनास किया था चुनाँचे वो क़ादरी शत्तारी के तौर पर मशहूर हुए और उसी निस्बत से उनके मुरीद बुल्ले शाह भी क़ादरी शत्तारी कहलाए। बुल्ले शाह फ़ारसी और अ’रबी के मशहूर आ’लिम मौलाना मुर्तज़ा क़सूरी से ता’लीम हासिल की। उनके बारे में कहा जाता है कि वो मशहूर क़िस्सा “हीर राँझा” के मुसन्निफ़ सय्यद वारिस शाह के हम-जमाअ’त थे। बुल्ले शाह ने शादी नहीं की और उ’म्र-भर कँवारे रहे। इसी तरह उनकी बहन भी थीं जिसने शादी नहीं की और अपनी सारी उ’म्र मुराक़बे और ज़िक्र-ओ-अज़्कार में गुज़ार दी। बुल्ले शाह एक सय्यद ख़ानदान से तअ’ल्लुक़ रखते थे लेकिन उनके मुर्शिद शाह इ’नायत एक बाग़बां थे जो मुस्लिम मूनआ’शरे में एक नीची ज़ात तस्लीम किया जाता था। जब बुल्ले शाह उनसे बैअ’त हुए तो उनके ख़ानदान और रिश्तेदारों ने उस पर सख़्त ऐ’तराज़ जताया और बहुत नाराज़ हुए। बुल्ले शाह अपने काफ़ियों में भी इस वाक़िआ’ का ज़िक्र करते हैं। कुछ दिनों के बा’द बुल्ले शाह और मुर्शिद के दरमियान शरीअ’त को लेकर कुछ ना-इत्तिफ़ाक़ी हो गई। उस की वजह ये थी कि शाह इ’नायत अपने मुरीद को एक रुहानी नज़्म-ओ-ज़ब्त में बंधा हुआ देखना चाहते थे और वो बुल्ले शाह के बाग़ियाना इज़हार-ए-ख़यालात की वजह से नाराज़ हो गए। उन्होंने अपने मुर्शिद की हिदायत को नज़र-अंदाज किया । उस का नतीजा ये हुआ कि उनका मुर्शिद के क़याम-गाह पर आना मम्नूअ’ क़रार दिया गया। क़लील अ’र्सा ही में बुल्ले शाह इस कोशिश में लग गए कि कैसे मुर्शिद तक रसाई हो। मुतअ’द्दिद हर्बा और तरीक़ा इस्ति’माल कर किया ताकि उनकी बारगाह तक रसाई हो सके। आख़िर में उन्होंने महफ़िल-ए-समाअ’ आरास्ता करने का ख़याल किया जिसके लिए उन्होंने मौसीक़ी और रक़्स सीखा। चूँकि सिलसिला-ए-चिश्तिया के यहाँ समाअ ’ और मौसीक़ी की इजाज़त है। अपने मंसूबे के तहत बुल्ले शाह रोज़ इ’नायत शाह के मस्जिद जाने के रास्ते पर अपनी महफ़िल का इंइ’क़ाद करते। एक दिन इ’नायत शाह ने उस महफ़िल से आने वाली दर्द-ओ-रंज से भरी आवाज़ सुनी जो उनको ही मुख़ातिब थी। वो महफ़िल में गए और पूछा कि क्या तुम बुल्ले हो? बुल्ले शाह ने फ़रमाया कि मैं बुल्ला नहीं लेकिन भुल्ला हूँ। भुल्ला का मतलब नादिम और शर्मिंदा होता है। मुर्शिद ने वहीं बुल्ले को मुआ’फ़ कर दिया|