आरज़ू लखनवी का परिचय
‘आरज़ू’ लखनवी का नाम सय्यद अनवर हुसैन था। उनकी पैदाइश 18 ज़िलहिज्जा 1289 हिज्री मुवाफ़िक़ 16 फरवरी 1873 ई’स्वी को लखनऊ के एक मालदार ख़ानदान में हुई थी, उनकी वालिदा आमिना बेगम इ’ल्मी-ओ-अदबी ख़ानदान से तअ’ल्लुक़ रखती थीं ‘आरज़ू’ के जद्द-ए-आ’ला मीर शहाम अ’ली ख़ां अ’हद शाह-जहानी में हिरात (ईरान) से हिन्दुस्तान आए और अजमेर शरीफ़ में सुकूनत इख़्तियार की । उनके बड़े साहिब-ज़ादे मीर जान अली उ’र्फ़ तहव्वुर ख़ां ने शाही फ़ौज में मुलाज़िमत इख़्तियार की जहाँ उनकी वफ़ादारी और बहादुरी की वजह से उनके मरातिब बढ़े। फिर वो अजमेर शरीफ़ की सुकूनत तर्क कर के लखनऊ में आ बसे।। चूँकि उनके वालिद मीर-ज़ाकिर हुसैन यास इब्न-ए-मीर मुहम्मद अ’ली भी शाइ’र थे इस लिए ‘आरज़ू’ बचपन से ही शे’र-ओ-शाइ’री की जानिब राग़िब हो गए। फ़न्न-ए-शाइ’री में शागिर्दी जलाल लखनई की इख़्तियार की। ‘आरज़ू’ लखनवी की शख़्सियत हश्त पहल थी। उन्होंने शाइ’री की तमाम अस्नाफ़ ग़ज़ल, मर्सिया, ना’त, सलाम, क़सीदा, मसनवी, गीत और रुबाई’ में तब्अ’-आज़माई की। शे’र-ओ-सुख़न के अ’लावा नस्र पर भी उन्हें ज़बरदस्त क़ुदरत हासिल थी जहाँ उन्होंने स्टेज ड्रामे और बरजस्ता मुकालमें लिखे वहीं उन्होंने दो दर्जन से ज़ाइद फिल्मों के गाने भी तहरीर फ़रमाए। ‘आरज़ू’ लखनवी को बचपन से ही शाइ’री का आ’ला ज़ौक़ था।, कम उ’म्री में ही एक उस्ताद ने उनको एक मिस्रा’ तर्ह देकर चैलेंज किया कि इस तरह में ज़ुल्फ़ की रिआ’यत के ब-ग़ैर दो दिन के अंदर एक शे’र भी कह दो तो हम तुम्हें शाइ’र मान लेंगे। उन्होंने महज़ चंद घंटों में ग्यारह अश्आ’र पर मुश्तमिल ग़ज़ल कह कर सुना दी। सब अ’श अ’श करने लगे। रक़ीब अपने बहुत हैं ये उसकी है ता’बीर कि रोज़ आके डराते हैं हमको ख़्वाब में साँप हमारा दर्द-ए-जिगर आसमां का तीर शहाब मुक़ाबले को चले साँप के जवाब में साँप ‘आरज़ू’ लखनवी के कलाम में नुदरत है। उन्होंने उर्दू शाइ’री को अपनी ज़मीन से जोड़ने की कोशिश की है। इस लिए उनकी शाइ’री इस सरज़मीन से पैवस्त नज़र आती है, प्रोफ़ेसर आल-अहमद सुरूर उन की शाइ’री के हवाले से लिखते हैं “ग़ज़ल की ज़बान को बोल-चाल की ज़बान से क़रीब ला कर शाइ’र ने ये वाज़ेह किया है कि शा’र की बोली दुनिया वालों की बोली से अलग नहीं होती और न वो क़दीम बहरों की क़ैद में हमेशा असीर रहती है इसी लिए ‘आरज़ू’ के अश्आ’र में सादगी और पु र-कारी है।” ‘आरज़ू’ सूफ़ियों की ख़ानक़ाहों और दरगाहों से हमेशा वाबस्ता रहे। उनकी ग़ज़लें क़व्वालियों में भी गाई जाती थीं 6 जनवरी 1951 ई’स्वी को ‘आरज़ू’ एक मुशाइ’रे में शिर्कत की ग़रज़ से कराची, पाकिस्तान गए थे। पाकिस्तान में उनका क़याम बहुत ही मुख़्तसर रहा और 9 रजबुल-मुरज्जब 1370 हिज्री मुताबिक़ 16 अप्रैल 1951 ई’स्वी को कराची में ही उनका इंतिक़ाल हो गया और वहीं उनकी तद्फ़ीन अ’मल में आई।