दादू दयाल का परिचय
कबीर के देहांत के छब्बीस बरस पहले अहमदाबाद शहर में साबरमती नदी के किनारे लोदीराम नामक ब्राह्मण को एक बच्चा मिला जिसे उन्होंने पाल-पोस कर बड़ा किया और यहीं बच्चा आगे चलकर संत दादू दयाल के नाम से प्रसिद्ध हुआ|
संत दादू दयाल जी के गुरु कबीर के बेटे कमाल साहब थे| पंडित सुधाकर द्विवेदी के अनुसार दादू नाम कमाल साहब द्वारा ही दिया हुआ है | दादू जी छोटे-बड़े सब को 'दादा' पुकारा करते थे इसलिए कमाल साहब ने इनका नाम दादू रख दिया|
दादू साहिब का पूरा जीवनकाल बादशाह अकबर के समय में था| अकबर के पैदा होने के एक बरस पहले इन्होंने जन्म लिया और उसकी मृत्यु के दो बरस पहले चोला छोड़ा | सम्वत १६४२ में कहते हैं अकबर से इनकी मुलाक़ात फतेहपुर सीकरी में हुई थी| अकबर ने इनसे सवाल किया था की ख़ुदा की ज़ात, वजूद और रंग क्या है ? जिसपर दादू साहिब ने यह जवाब दिया था -
इशक़ अलह की जाति है इशक़ अलह का अंग
इशक़ अलह औजूद है, इशक़ अलह का रंग
दादू साहिब के पहले २९ साल का कोई हाल नहीं मिलता पर सम्वत १६३० में वह सांभर आये और वहां अनुमानतः छह बरस रहे . वहां से आम्बेर(जयपुर की पुराणी राजधानी ),जयपुर, मारवाड़, बीकानेर आदि होते हुए नरना में क़याम किया जो जयपुर से २० कोस की दूरी पर स्थित है | वहां से तीन चार कोस की दूरी पर भराने की पहाड़ी है, दादू साहिब ने अपना अंत समय वहीं बिताया और भराने में ही चोला छोड़ा|
दादू संप्रदाय के बावन प्रसिद्ध अखाड़े है| ये अखाड़े मुख्यतः जयपुर में हैं इसके अलावा अलवर , मारवाड़ , मेवाड़ , बीकानेर , पंजाब और गुजरात में भी स्थित हैं | काशी में भी इनका एक अखाड़ा है .सब महंतों के मुखिया नरना में रहते हैं .
दादू-पंथी संत विवाह नहीं करते हैं| ये कबीर पंथियों की तरह माथे पर तिलक और गले में कंठी वगैरा नहीं पहनते | सर पर टोपा या मुरायठ धारण करते हैं | मृत्यु के उपरांत ये अपने पंथियों को जलाते हैं परन्तु पहले ये अपने मुर्दों को अर्थी पर रख कर जंगल में छोड़ आते थे जिस में पशु उसका आहार करें |
दादू साहिब की बानी मिलती है जिसमे अनेक भाषाओँ के शब्द मिलते हैं जो उनकी भाषायी विद्वता को परिलक्षित करता है|