डॉ. अफ़रोज़ ताज के दोहे
उल्टी गंगा राम की, कह दूँ साँची बात
मुर्दों को है ताज महल, ज़िंदों को फ़ुटपात
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पाखी बैठा पींजरा, मन ही मन में शाद
सारी दुनिया जेल में, मैं ही इक आज़ाद
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बाँसुरिया के भाग पर, अचरज करता क्यूँ
मन में छेद छिदाए, तब लगी पिया के मूँ
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अरब देश क्या पूछिए, जैसे एक चिराग़
नीचे-नीचे तेल है, ऊपर-ऊपर आग
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ज़्यादा सुंदर मुखन पे, न होना बे-ताब
उतने काँटे झार में, जितने फूल गुलाब
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जीव दया से देस के, भरे पड़े बाज़ार
बच्चे झूठन चाटते, कुत्ते घूमें कार
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नेत्रदान को पाय के, अंधा ख़ुशी मनाय
चीखा दुनिया देख के मोहे अंधा कोई बनाय
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जो भी जितना रोए है, उतना ही मुस्काए
पौधा ही न सींचिए, फल कहाँ से आए
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अब क्या चला है पोंछने, तू निर्धन के नीर
एक बना तू बादशाह, लाखों बने फ़क़ीर
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere