डॉ. अफ़रोज़ ताज के दोहे
बुढ़िया कमर झुकाय के, मोटा चश्मा डार
झुक झुक रेत में ढूंढती, जोबन कहाँ फ़रार
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अच्छी मदिरा ढूंढने, छाने सभी बजार
मदिरा अच्छी मैं कहूँ, खुली न इक भी बार
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ताज पहेली जानता, उलटे उसके कान
अली सुने दीपावली, राम सुने रमज़ान
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माँगें मदद बाबुल से, मनको भावें आम
हाथ हटा हथियार से, हाथ यार का थाम
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दौलत में और रोग में, रोग ही मुझे सुहाय
दौलत यार भुलाय है, रोग ही याद दिलाय
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पंछी सोचके कीजियो, कीड़ों का संघार
कीड़ों का बन जाएगा, इक दिन तू आहार
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कपड़े गिन गिन देत हो, धोबी को हर बार
दाग़ धुले ख़ुद आप से, इस पर करो विचार
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कहीं फूल कहीं चादरें, कहीं पे चन्दन हार
गंगा जी के घाट पर, मुर्दों के श्रृंगार
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बाँसुरिया के भाग पर, अचरज करता क्यूँ
मन में छेद छिदाए, तब लगी पिया के मूँ
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मन में माल कुबेर का, तन से ताज मलंग
जैसे तेल ज़मीन में, ऊपर धूल दबंग
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अरब देश क्या पूछिए, जैसे एक चिराग़
नीचे-नीचे तेल है, ऊपर-ऊपर आग
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झगड़ा मौत कबीर पर, गाढ़े या जलवाय
फूल डाल मुझ बावरा, ले गयो उसे उठाय
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ज़्यादा सुंदर मुखन पे, न होना बे-ताब
उतने काँटे झार में, जितने फूल गुलाब
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जीव दया से देस के, भरे पड़े बाज़ार
बच्चे झूठन चाटते, कुत्ते घूमें कार
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घृणा ही क्यों मानता, प्रेम संदेसा मान
मास्जिद के ही पास जो, किशन जनम स्थान
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हाथी रूप गणेश जी, बन्दर में हनुमान
मानव जात के रूप में, खुले फिरे शैतान
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नेत्रदान को पाय के, अंधा ख़ुशी मनाय
चीखा दुनिया देख के मोहे अंधा कोई बनाय
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लाखों माचिस तीलियाँ, एक ही पेड़ बनाय
इक तीली ने पेड़ को, लाखों दिए जलाय
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जो भी जितना रोए है, उतना ही मुस्काए
पौधा ही न सींचिए, फल कहाँ से आए
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अब क्या चला है पोंछने, तू निर्धन के नीर
एक बना तू बादशाह, लाखों बने फ़क़ीर
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उल्टी गंगा राम की, कह दूँ साँची बात
मुर्दों को है ताज महल, ज़िंदों को फ़ुटपात
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शेर से डरके जानवर, भजे शहर की ओर
इस से तो वे वहीं भले, शहर में आदम ख़ोर
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मानव चींटा मारकर, तनिक न देता ध्यान
चींटा उस को काट ले, आ जाये तूफ़ान
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पाखी बैठा पींजरा, मन ही मन में शाद
सारी दुनिया जेल में, मैं ही इक आज़ाद
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere