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नज़ीर अकबराबादी

1735 - 1830 | आगरा, भारत

अग्रणी शायर जिन्होंने भारतीय संस्कृति और त्योहारों पर नज्में लिखीं। होली, दीवाली, श्रीकृष्ण पर नज़्मों के लिए मशहूर

अग्रणी शायर जिन्होंने भारतीय संस्कृति और त्योहारों पर नज्में लिखीं। होली, दीवाली, श्रीकृष्ण पर नज़्मों के लिए मशहूर

नज़ीर अकबराबादी का परिचय

उपनाम : 'नज़ीर'

मूल नाम : मोहम्मद वली

जन्म :दिल्ली

निधन : 01 Aug 1830 | उत्तर प्रदेश, भारत

नज़ीर अकबराबादी का नाम सय्यद वली मुहम्मद था था। नज़ीर तख़ल्लुस करते थे| 1735 ई’स्वी में देहली में पैदा हुए। नज़ीर अपने वालिदैन की तेरहवीं एकलौती नरीना औलाद थे। नज़ीर की पैदाइश पर बड़ी धूम-धाम हुई। रक़्स-ओ-सुरूर की महफ़िलें आरास्ता की गईं और उनकी परवरिश बड़े प्यार और निगह-दारी के साथ की गई। नज़ीर चार साल के थे कि देहली की तबाही की वजह से उनकी वालिदा उन्हें आगरा लेकर गईं। उनकी इब्तिदाई ता’लीम आगरा में ही हुई। नज़ीर का ख़ानदान सर्वत-मंद था इसलिए उन्होंने अपना बचपन और जवानी के अय्याम बहुत आराम-ओ-आसाइश में गुज़ारे। ख़ानदान और माहौल के असर से सिपहगरी के फ़न में कमाल हासिल किया। बहुत से खेलों में उनको गहरी दिलचस्पी थी। रोज़गार की तलाश हुई तो नज़ीर ने मुअ’ल्लिमी का पेशा इख़्तियार किया। मथुरा में बच्चों को ता’लीम देते थे। कहा जाता है कि उन्होंने राजा विलास राय के छः बच्चों को पढ़ाया। बा’द में नज़ीर को राजा भरतपुर और उसके बा’द नवाब-ए-अवध वाजिद अ’ली शाह ने अपने मुसाहिबों में रखना चाहा लेकिन नज़ीर अपना वतन छोड़ने के लिए आमादा नहीं हुए। नज़ीर अकबराबादी मीर, सौदा, जुर्रत, इंशा और मुस्हफ़ी के हम-अ’स्र थे। ये दौर वो था जिसमें उर्दू की क्लासिकी शाइ’री अपने उ’रूज पर थी और ग़ज़ल की सिन्फ़ तख़लीक़ी इज़हार का सबसे अहम ज़रिआ’ समझी जाती थी। नज़ीर अकबराबादी का कमाल ये है कि उन्होंने उस अ’हद में उर्दू शाइ’री को बिल्कुल एक नए और अनोखे तजुर्बे से आश्ना किया। नज़ीर ने अपनी शाइ’री के लिए मौज़ूआ’त अपने आस-पास बिखरी हुई ज़िंदगी से चुने। अ’वामी ज़िंदगी का शायद ही कोई ऐसा पहलू हो जिसको नज़ीर ने शाइ’री में न बरता हो। होली, दीवाली, बसंत, राखी, शब-ए-बरात, ई’द, पतंग बाज़ी, कबूतर-बाज़ी, बरसात और इस तरह के बहुत से मौज़ूआत उनके यहाँ मिलते हैं। उस ज़माने की मस्तियाँ, हुस्न-ओ-इ’श्क़ के मर्हले, तफ़रीहात, बेहूदिग्याँ यहाँ तक के आ’मियाना-पन भी उनके मिज़ाज और शाइ’री का हिस्सा रहा। नज़ीर की शाइ’री की ज़बान भी उर्दू की मे’यारी ज़बान और लब-ओ-लहजे के अ’लावा अ’वामी बोल-चाल की ज़बान है। नज़ीर ने मौज़ूआ’त भी अ’वामी ज़िंदगी से उठाए और उनको बयान करने के लिए ज़बान भी उन्हीं की इस्ति’माल की। शाइ’री में जिस क़िस्म के मौज़ूआ’त से नज़ीर का वास्ता था उनके इज़हार के लिए ग़ज़ल ना-काफ़ी थी। इसीलिए उर्दू शे’री रिवायत में पहली मर्तबा नज़्म को अहमियत हासिल हुई।


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