तुराब अली दकनी का परिचय
शाह तुराब अली, जिनका नाम तुराब अली, तख़ल्लुस ‘तुराब’ और लक़ब गंज-उलल-असरार था। शाह तुराब के नाम से प्रसिद्ध थे। वे अपने युग के एक प्रभावी सूफी थे और एक सूफ़ी कवि थे जिन्होंने अपनी सूफ़ी सोच को अपनी कविता का विषय बनाया। उनका उल्लेख किसी पुस्तक या एतिहासिक पुस्तक में नहीं किया गया है, क्योंकि वे शहर से दूर के 'तर्नामल' ज़िला चटपेट (आरकट) में रहते थे। सूफीवाद उनके जीवन का मक़सद था और कविता उनके सूफ़ीवाद की सोचा और उसके प्रचार का माध्याम था।
शाह तुराब ने अपने दीवान और तसानीफ़ में तुराब तख़ल्लुस का इस्तिमाल किया है। लेकिन कुछ जगहों पर बु-तुराब, तुराबी और बु-तुराबी का इस्तिमाला किया है. उदाहरण के लिए:
वाँ तिश्नगी कहाँ है जहाँ आप ‘बु-तुराब’
बे-जाम आब-दार हो फिरता है रोज़-ओ-शब (दीवान-ए-तुराब)
आज ‘तुराबी’ पिया बादः-ए-गुल-रंग सनम
सुन के हुआ दिल कबाब कैफ़ की इस की कैफ़ियत (दीवान-ए-ग़ज़ल)
तू बस हक़-ओ-हक़ीक़त का बयान बोल
तू अब ऐ ‘बु-तुराबी’ सब अयाँ बोल (गुल्ज़ार-ए-वहदत)
शाह तुराब मद्रास के इलाक़े 'तर्नामल' के रहने वाले थे, तर्नामल से बेजापुर आकर पीर शाह हुसैनी के मुरीद हो गए जो, हज़रत अमीनुद्दीन अली आला के पड़पोते थे.। वह अपने मुर्शिद के प्यार में इतना मग्न हुए कि अपने आबाई वतन को भूल गए और बेजापूर में रहने लगे लेकिन जब उनके पीर ने उन्हें ख़िलाफ़त दी तो साथ ही उन्हें तर्नामल जाने का आदेश दिया। उन्होंने तर्नामल में ही अपना तकिया (चौपाल) निर्माण किया और अपने सूफ़ी श्रृंख़्ला के प्रचार और उद्धार में लगा गए।
तर्नामल, दक्षिणी भारत के अर्काट में स्थित है (दक्षिण भारत के राज्य तमिलनाडु के शहर वेलोर में स्थित है) जो हिन्दु मंदिरों के सुंदर दृश्यों के लिए प्रसिद्ध है, चुँकि औरंगज़ेब ने बेजापुर को दो भागों में विभाजित किया हुआ था। एक भाग में, बेजापूर कर्नाटक-बालाघाट और दूसरा भाग बेजापूर कर्नाटक-पाटनघाट था और इसी कारण से आज भी दक्षिण भारत के लोग शाह तुराब को ‘तुराब बेजापूरी’ लिखते हैं।
उनकी रचनाओं में उनका दीवान ‘दीवान-ए-तुराब’ प्रमुख है। उन्होंने अपने पीर के कहने पर एक मसनवी ‘ज्ञान-स्वरूप” लिखी इसके अतिरिक़्त ज़ुहूर-ए-कुल्ली, गुल्ज़ार-ए-वहदत, गंज-उल-असरार और आईना-ए-कसरत आदी इनकी प्रमुख़ रचनाएं हैं। महाऋषी रामदास जो दक्षिण भारत के एक महान सूफ़ी कवी हैं जो भक्ति मार्ग के बड़े प्रचारक भी हैं उनकी रचना ‘मनाचे श्लोक’ का अनुवाद इन्होंने ‘मन-समझावन’ के नाम से उर्दू में किया।
शाह तोरब का घर सूफ़ी पतन था, और उनके पिता और उनके दादा भी सूफी थे। उन्होंने धर्मग्रंथ संकलित किए थे। वे फ़ारसी और अरबी भाषाओं से भी परिचित थे, मैराथी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं से भी। आलम रिमल ने उनसे प्राप्त किया। इसके अलावा, तर्क, कल्पना और ज्ञान प्रकृति और स्पष्ट रूप से व्यापक थे, जो उन्होंने अपने स्वामी के बीच हासिल किए थे।
शाह तुराब का घरना सूफ़ी घराना था, उनके पिता और दादा भी सूफ़ी थे। उन्होंने धर्मग्रंथों को संकलित किया था। वे फ़ारसी और अरबी भाषाओं से भी भली-भाँति परिचित थे, मराठा और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं को भी जानते थे। ज्योतिष विद्या का भी ज्ञान भी इनको था जो इन्होंने अपने पीर से प्राप्त की थी। इसके अलावा, तर्क, तसव्वुफ़ और दर्शनशास्त्र के अलावा ज़ाहिर-ओ-बातिन की विद्या भी अपने मुर्शिद से प्राप्त किया।