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ग़ज़ल
इतना न फ़रेब-ए-उल्फ़त में ये जज़्बा-ए-कामिल आ जाएहर गाम क़रीब-ए-मंज़िल हो हर गाम पे मंज़िल आ जाए
क़ातिल अजमेरी
ना'त-ओ-मनक़बत
गुल-ए-बुस्तान-ए-मा'शूक़ी मह-ए-ताबान-ए-महबूबीनिज़ामुद्दीन सुल्तान-उल-मशाइख़ जान-ए-महबूबी
हसरत अजमेरी
ग़ज़ल
चराग़-ए-मह सीं रौशन-तर है हुस्न-ए-बे-मिसाल उस काकि चौथे चर्ख़ पर ख़ुर्शीद है अक्स-ए-जमाल उस का
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
मिरी हसरत न रह जाये मिरा अरमाँ न रुक जायेक़मर हट बाम पर मेरा मह-ए-कामिल निकलता है
अकबर वारसी मेरठी
ना'त-ओ-मनक़बत
उँगलियाँ देख के हूँ ‘अश्रा-ए-लताइफ़ ज़ाकिरमह-ए-कामिल को करे शक़्क़ है इशारा ऐसा
नसीर सेराजी
बैत
गया से गया 'कामिल'-ए-ख़स्ता-जाँ
गया से गया 'कामिल'-ए-ख़स्ता-जाँजुनूँ की मगर दास्ताँ रह गई
कामिलुल क़ादरी
ग़ज़ल
वसवसे आते नहीं ये मर्द-ए-कामिल के क़रीबदूर है मंज़िल से वो या है वो मंज़िल के क़रीब
अब्दुल रब तालिब
कलाम
जबीन-ए-शौक़ के सज्दों की मस्ती ये पुकार उट्ठीकिसी के नक़्श-ए-पा को हम मह-ए-कामिल समझते हैं
अमीर बख़्श साबरी
ग़ज़ल
सिपहर-ए-हुस्न है तू और अख़्तर ख़ाल-ए-आ'रिज़ हैंमह-ए-कामिल का आ'लम है तिरे रू-ए-मुनव्वर में