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Sufinama

आँख पर अशआर

चश्म/आँखः शो’रा ने आँख

और चश्म को कसरत से इस्ति’माल किया है और इसे हासिल-ए-हुस्न क़रार दिया है और आँखों से मुतअ’ल्लिक़ तरह-तरह की तश्बीहात इस्ति’माल की हैं। चश्म-ए-मस्त, चश्म-ए-सुर्मगीं, चश्म-ए-ग़ज़ाल।हिन्दी में कंवल जैसी आँख, नयन कटोरे वग़ैरा। सूफ़िया इस हुस्न-ए-मजाज़ में हक़ीक़त का रंग देखते हैं जो कुछ यहाँ है वो उस का पर्तव है जो वहाँ है: हमः अशिया मज़ाहिर-ए-ज़ात अंद हमः अशिया मज़ाहिर-ए-सिफ़ात अंद (तर्जुमा:या’नी तमाम अशिया मज़ाहिर-ए-ज़ात हैं और तमाम अशिया मज़ाहिर-ए-सिफ़ात हैं)।

मेरी आँख बंद थी जब तलक वो नज़र में नूर-ए-जमाल था

खुली आँख तो ना ख़बर रही कि वो ख़्वाब था कि ख़्याल था

बहादुर शाह ज़फ़र

है वज्ह कोई ख़ास मिरी आँख जो नम है

बस इतना समझता हूँ कि ये उन का करम है

फ़ना बुलंदशहरी

दिल वही दिल है जो अल्लाह का जल्वा देखे

आँख वो आँख जो क़ुदरत का तमाशा देखे

रज़ा वारसी

जान से हो गए बदन ख़ाली

जिस तरफ़ तू ने आँख भर देखा

ख़्वाजा मीर दर्द

किसी की आँख का नूर हूँ किसी के दिल का क़रार हूँ

जो किसी के काम सकी मैं वो एक मुश्त-ए-ग़ुबार हूँ

मुज़्तर ख़ैराबादी

शब-ए-वस्ल क्या मुख़्तसर हो गई

ज़रा आँख झपकी सहर हो गई

जिगर मुरादाबादी

हिजाब-ए-रुख़-ए-यार थे आप ही हम

खुली आँख जब कोई पर्दा देखा

ख़्वाजा मीर दर्द

वो छुप गए तो आँख से तारे निकल पड़े

दिल गुम हुआ तो अश्क हमारे निकल पड़े

नाज़ाँ शोलापुरी

वो आँख मेरे लिए नम है क्या किया जाए

उसे भी आज मिरा ग़म है क्या किया जाए

पुरनम इलाहाबादी

सपने में आँख पिया संग लागी।

चौंक पड़ी फिर सोई जागी।।

शाह तुराब अली क़लंदर

लगा कर आँख उस जान-ए-जहाँ से

होगा अब किसी से आश्ना दिल

हसरत मोहानी

आँख मिलते ही किसी मा'शूक़ से

फिर तबीअ'त क्या सँभाली जाएगी

संजर ग़ाज़ीपुरी

जिस आँख ने देखा है उस आँख को देखूँ

है उस के सिवा क्या तेरे दीदार की सूरत

वासिफ़ अली वासिफ़

उस आँख से जिस आँख ने मख़मूर दो-आ’लम किए

मेरी तरफ़ भी देखना मौला-अ’ली मुश्किल-कुशा

अकबर वारसी मेरठी

बे-हिजाबाना वो सामने गए और जवानी जवानी से टकरा गई

आँख उन की लड़ी यूँ मिरी आँख से देख कर ये लड़ाई मज़ा गया

फ़ना बुलंदशहरी

आँख उठाय के देखत नाहीं।

लाज भरा शरमाया बनरा

शाह तुराब अली क़लंदर

तोहमत-ए-बद-नज़री आँख चुराने का गिला

बह्स क्या छिड़ गई थी शर्ह-ए-इशारात की रात

कैफ़ी हैदराबादी

सैयाँ संग कस मोरा लागो नयनवा

आँख लगत नहीं नींद पड़त नहीं

शाह तुराब अली क़लंदर

हर आँख की तिल में है ख़ुदाई का तमाशा

हर ग़ुन्चा में गुलशन है हर इक ज़र्रा में सहरा

इम्दाद अ'ली उ'ल्वी

अपना बना के सनम तुम ने जो आँख फेर ली

ऐसा बुझा चराग़-ए-दिल फिर ये कभी जला नहीं

फ़ना बुलंदशहरी

कर्बला सामने आती जो वो लाशे ले कर

आँख तो आँख है पत्थर से भी रिसता पानी

मुज़फ़्फ़र वारसी

आह जिस दिन से आँख तुझ से लगी

दिल पे हर रोज़ इक नया ग़म है

मीर मोहम्मद बेदार

आँख उन की फिर आलूदा-ए-नम देख रहा हूँ

ख़ुद पर उन्हें माइल-ब-करम देख रहा हूँ

हामिद वारसी गुजराती

कहीं है आँख आ’शिक़ की कहीं दीदार-ए-जानाँ है

बहार-ए-हुस्न-इ-ताबाँ में तू ही तू है तू ही तू है

चौधरी दल्लू राम

अज़ल से अबद तक कभी आँख दिल की

झपके झपकने पाए तो क्या हो

ज़हीन शाह ताजी

खोल आँख अपनी देख अयाँ हक़ का नूर है

हर बर्ग हर शजर में उसी का ज़ुहूर है

अता हुसैन फ़ानी

उस दर-ए-फ़ैज़ से उम्मीद बंधी रहती है

और मदीना की तरफ़ आँख लगी रहती है

सीमाब अकबराबादी

यूँ आँख से आँख में मिला है

इतना तो मिरा दिल-ओ-जिगर है

ख़्वाजा मीर असर

गर आँख तेरी है देख तू हर चीज़ के अंदर ज़ाहिर है

महबूब तेरा टुक सोच तो तू हर हाल से तेरे माहिर है

कवि दिलदार

गर कहीं उस को जल्वा-गर देखा

गया हम से आँख भर देखा

मीर मोहम्मद बेदार

लेने वाले अपनी आँखों से लगा लेते हैं उसे

आँख का तारा है संदल हज़रत-ए-मख़दूम का

शैख़ मोहम्मद नदीमी

सुध कब रहत मोहन के देखत

चित कहाँ ठहरत आँख लगाय

शाह काज़िम क़लंदर

मन मेरी मन ये चाव

आँख-बचोला जिवड़ा हंस जावे बाट

क़ाज़ी महमूद दरियाई

तू उसी की आँख का नूर है तू उसी के दिल का सुरूर है

कि जिसे बुलंद नज़र मिली कि जिसे शुऊ'र-ए-विला मिला

कामिल शत्तारी

डूब जाने की हिदायत जो कभी मौज ने दी

आँख देने को हबाब-ए-लब-ए-दरिया निकला

मुज़्तर ख़ैराबादी

आमना-बीबी के दुलारे

अबदुल्लाह की आँख के तारे

संजर ग़ाज़ीपुरी

इस से पहले आँख की पुतली की क्या औक़ात थी

तेरे नुक़्ता देते ही क्या क्या नज़र आने लगा

मुज़्तर ख़ैराबादी

आँख खोल के देखो तो सब एक ज़ात से घेरी है

जा से नूर हुआ है दिन को वा से रात अँधेरी है

कवि दिलदार

वलेकिन है एक आँख का कोर वह

तबीयत वह धरता है शैतान की

ज़ईफ़ी

हाँ ये सरशारियाँ जवानी की

आँख झपकी ही थी कि रात गई

जिगर मुरादाबादी

जब सो गये तुम आँख लगाय

कैसे "तुराब" पिया को भूलूँ

शाह तुराब अली क़लंदर

युमिनूना बिल-ग़ैब कूँ आँख मूँद मन पील

सीखो गुरु सों ये जुगत आँख-मिचौनी खेल

बरकतुल्लाह पेमी

श्री वृषभानु किशोरी रे लोगो

मोरी तो आँख "तुराब" सो लागी

शाह तुराब अली क़लंदर

मिलाकर आँख दिल लेना है बाएं हाथ का करतब

सिवा इस के भरे हैं बे-शुमार असरार आँखों में

कैफ़ी हैदराबादी

ऐसे निठुर से काम पड़ो है

आँख लगाय मैं जी सो गई

शाह तुराब अली क़लंदर

नहीं आँख जल्वा-कश-ए-सहर ये है ज़ुल्मतों का असर मगर

कई आफ़्ताब ग़ुरूब हैं मिरे ग़म की शाम-ए-दराज़ में

सीमाब अकबराबादी

क्या मिरी आँख अदम बीच लगी थी चर्ख़

क्या उस ख़्वाब से तू ने मुझे बेदार अ’बस

एहसनुल्लाह ख़ाँ बयान

आँख खोल दिखते 'काज़िम' काँ

उठ गरे लागो कँवर कन्हाई

शाह काज़िम क़लंदर

तूफ़ान तनिक सुमन की बू में

समदर एक आँख के अंजो में

क़ाज़ी महमूद बेहरी

काहे तू मोसे आँख चुरावत

संमुख तोरे मैं आपै हूँगी

शाह तुराब अली क़लंदर

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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