जन्नत पर अशआर
जन्नत/बहिश्तः जन्नत-ओ-बहिश्त
मरने के बा’द साहिब-ए-ईमान और नेक-कारों का वो मस्कन है जहाँ ऐसी ने’मतें मौजूद हैं जिन्हें न किसी बशर ने देखा है न किसी कान ने सुना है और न किसी के दिल पर उनका ख़याल गुज़रा है। तसव्वुफ़ में बहिश्त-ओ-जन्नत बस्त और दोज़ख़ क़ब्ज़ की कैफ़ियत है।अल्लाह की ख़ुश-नूदी पर जन्न्त का वा’दा किया गया है।जन्नत के इ’नआ’मात सालिक की मंज़िल नहीं हुआ करती बल्कि ज़ात-ए-हक़ उसकी मंज़िल हुआ करती है।
दावर-ए-हश्र ये है हश्र में अरमाँ मुझ को
बदले जन्नत के मिले कूचा-ए-जानाँ मुझ को
जन्नत है उस बग़ैर जहन्नम से भी ज़ुबूँ
दोज़ख़ बहिश्त हैगी अगर यार साथ है
साज़-ओ-सामाँ हैं मेरी ये बे सर-ओ-सामनियाँ
बाग़-ए-जन्नत से भी अच्छा है ये वीराना मिरा
गुलशन-ए-जन्नत की क्या परवा है ऐ रिज़वाँ उन्हें
हैं जो मुश्ताक़-ए-बहिश्त-ए-जावेदान-ए-कू-ए-दोस्त
जज़्बा-ए-इश्क़ में जन्नत की तमन्ना कैसी
ये बुलंदी तो मिरी गर्द-ए-सफ़र होती है
दर-ए-'वारिस' पे है 'बेदम' का बिस्तर
तिरी जन्नत तुझे रिज़वाँ मुबारक
तुम हो शरीक-ए-ग़म तो मुझे कोई ग़म नहीं
दुनिया भी मिरे वास्ते जन्नत से कम नहीं
मुबारक ज़ाहिदों को फिर बाग़-ए-ख़ुल्द 'कौसर'
न जन्नत मेरे क़ाबिल है न मैं जन्नत के क़ाबिल हूँ
हरम है जा-ए-अदब काम देगी जन्नत में
फ़रिश्तो ताक़ से बोतल ज़रा उठा देना
वो ऐ 'सीमाब' क्यूँ सर-ग़श्तः-ए-तसनीम-ओ-जन्नत हो
मयस्सर जिस को सैर-ए-ताज और जमुना का साहिल है
मिला क्या हज़रत-ए-आदम को फल जन्नत से आने का
न क्यूँ उस ग़म से सीन: चाक हो गंदुम के दाने का
हूर-ए-जन्नत उन से कुछ बढ़ कर सही
एक दिल क्या क्या तमन्ना कीजिए
हैरत है कि मय-ख़ाने में जाता नहीं ज़ाहिद
जन्नत में मुसलमान से जाया नहीं जाता
तिरे कूचे में क्यूँ बैठे फ़क़त इस वास्ते बैठे
कि जब उट्ठेंगे इस दुनिया से जन्नत ले के उट्ठेंगे
हम ऐसे ग़र्क़-ए-दरिया-ए-गुन: जन्नत में जा निकले
तवान-ए-लत्मः-ए-मौज-ए-शफ़ाअत हो तो ऐसी हो
तलाश-ए-बुत में मुझ को देख कर जन्नत में सब बोले
ये काफ़िर क्यूँ चला आया मुसलमानों की बस्ती में
चमन-ए-सीनः-ए-पुर-दाग़ में तेरा जल्वः
यार क़ाबिल तिरे गुल-गश्त के जन्नत भी नहीं
जिस दिन से मेरे दिल को आबाद किया तुम ने
अनवार की जन्नत है काशान: जिसे कहिए
वहाँ तो हज़रत-ए-ज़ाहिद तुम्हें अच्छों से नफ़रत थी
यहाँ जन्नत में अब किस मुँह से तुम लेने को हूर आए
वफ़ादारी की सूरत में जफ़ा-कारी का नक़्शा तू
ये नैरंग-ए-मोहब्बत है कि ऐसा मैं हूँ वैसा तू
बुतों के लिए सब जले आग में
जहन्नम पे जन्नत फ़िदा हो गई
उस दूध का ख़ुदा करे कासः हमें नसीब
जन्नत में पंज-तन की जो बहती है जू-ए-शीर
ख़ुदा रक्खे अजब कैफ़-ए-बहार-ए-कू-ए-जानाँ है
कि दिल है जल्वः-सामाँ तो नज़र जन्नत-ब-दामाँ है
जैसी चाहे कोशिशें कर वाइ'ज़-ए-बातिन-ख़राब
तेरे रहने को तो जन्नत में मकाँ मिलता नहीं
हमें निस्बत है जन्नत से कि हम भी नस्ल-ए-आदम हैं
हमारा हिस्सा 'राक़िम' है इरम में हौज़-ए-कौसर में
और हैं जिन को है ख़ब्त-ए-इश्क़-ए-हूरान-ए-जिनाँ
हम को सौदा-ए-हवा-ए-गुलशन-ए-जन्नत नहीं
'नसीर'-ए-खस्तः-जाँ जन्नत से इस कूचे को कब बदले
ब अज़ ज़िल्ल-ए-हुमा है यार की दीवार का साया
सुकून-ए-मुस्तक़िल दिल बे-तमन्ना शैख़ की सोहबत
ये जन्नत है तो इस जन्नत से दोज़ख़ क्या बुरा होगा
उठ के अँधेरी रातों में हम तुझ को पुकारा करते हैं
हर चीज़ से नफ़रत हम को हुई हम जन्नत-ए-फ़र्दा भूल गए
क्यूँ न दोज़ख़ भी हो जन्नत मुझे जब ख़ुद वो कहे
इस गुनहगार को ले जाओ ये मग़्फ़ूर नहीं
बाग़-ओ-बहिश्त-ओ-हूर-ओ-जन्नत अबरारों को कीजिए इनायत
हमें नहीं कुछ उस की ज़रूरत आप के हम दीवाने हैं
अब इजाज़त दफ़्न की हो जाए तो जन्नत मिले
यार के कूचे में हम ने जा-ए-मदफ़न की तलाश
बहार आने की आरज़ू क्या बहार ख़ुद है नज़र का धोका
अभी चमन जन्नत-नज़र है अभी चमन का पता नहीं है
तिरा जाम जाम-ए-कौसर तिरा मय-कदा है जन्नत
मिरे हाल पे करम कर मिरी तिश्नगी बुझा दे
ये बुत जब जहन्नुम में डाले गए
तो फिर तेरी जन्नत में क्या रह गया
कूचा-ए-क़ातिल में मुझको घेर कर लाई है ये
जीते जी जन्नत में पहुंचा दे क़ज़ा ऐसी तो हो
'हामिद' रहे आबाद सदा शहर-ए-नबी का
जन्नत से भी मर्ग़ूब मदीने की फ़ज़ा है
गए मय पीते हुए आलम-ए-असरार से हम
मस्त जन्नत में गए ख़ान:-ए-ख़ुमार से हम
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere