जहाँ आरा बेगम का परिचय
जहाँ आरा बेगम मुग़ल बादशाह शाह-जहाँ और मुम्ताज़ महल की दुख़्तर और औरंगज़ेब की बड़ी बहन हैं जहाँ आरा बेगम की पैदाइश 1614 ई’स्वी को आगरा में हुई। औरंगज़ेब ने उसे साहबतुज़्ज़मानी का लक़ब दिया था। जब मुम्ताज़ महल की वफ़ात 1631 ई’स्वी में हुई तो उस वक़्त जहाँ आरा की उ’म्र 17 साल की थी। उसे मुग़्लिया सल्तनत की शाहज़ादी कहा जाने लगा। अपने भाई बहनों की देख-भाल के साथ अपने शफ़ीक़ वालिद मोह्तरम शाह-जहाँ बादशाह की भी देख-भाल उसने अपने सर ली मुम्ताज़ महल ने अपने 14 वीं बच्चे की तौलीद के वक़्त इंतक़ाल किया। माना जाता है कि मुम्ताज़ महल के निजी ज़र-ओ-ज़ेवर की क़ीमत उस दौर में एक करोड़ रुपय थी। शाह-जहाँ ने उसे दो हिस्सों में तक़्सीम किया। एक हिस्सा जहाँ आरा को और दूसरा हिस्सा बच्चों में तक़्सीम किया। शाह-जहाँ अक्सर अपनी बेटी जहाँ आरा से राय मश्वरे लेता था। इंतिज़ामी उमूर में अक्सर जहाँ आरा का दख़ल भी हुआ करता था। अपनी अ’ज़ीज़ बेटी को शाह-जहाँ साहिबातुज़्ज़ामानी, पादशाह बेगम, बेगम साहिब जैसे अल्क़ाब से पुकारा करता था। जहाँ आरा को इतना इख़्तियार भी था कि वो अक्सर क़स्र-ए-आगरा से बाहर भी जाया करती थी। 1644 ई’स्वी में जहाँ आरा की 30 वीं साल-ए-गिरह के मौक़ा’ पर एक हादिसा हुआ जिसमें जहाँ आरा के कपड़ों को आग लग गई और वो झुलस कर ज़ख़्मी हो गईं। शाह-जहाँ इस बात से निहायत रंजीदा हुआ और इंतिज़ामी उमूर दूसरों को सौंप कर अपनी बेटी की देख-भाल करने लगा। वो अजमेर शरीफ़ में ख़्वाजा मुई’नुद्दीन चिश्ती की ज़ियारत पर भी गया। जब जहाँ आरा ठीक हुईं तो शाह जहाँ ने उसे क़ीमती हीरे जवाहरात और ज़ेवरात तोहफ़े में दिया और सूरत बंदरगाह से आने वाली आमदनी को भी उस ने तोहफ़े में पेश किया। जहाँ आरा ने बा’द में अजमेर शरीफ़ की ज़ियारत भी की, जो उस के पर-दादा शहनशाह अकबर का तौर था। जहाँ आरा मुल्ला बदख़्शी की मुरीद थी। उन्हों ने उसे तरीक़ा-ए-क़ादरिया में 1641 ई’स्वी में माहिर किया। मुल्ला शाह बदख़्शी जहाँ आरा से इतना मुतअस्सिर थे कि अपने बा’द उस सिलसिले की ज़िम्मेदारी जहाँ आरा को सोंपना चाहा मगर सूफ़ी तरीक़ा ने ये इजाज़त न दी जिसकी वजह से वो चुप रह गए। जहाँ आरा ने ख़्वाजा मुई’नुद्दीन चिश्ती की सवानिह लिखी जिसका नाम मूनिसुल-अर्वाह रखा। इस तरह उसने अपने पीर-ओ-मुर्शिद मुल्ला शाह बदख़्शी की भी सवानिह लिखी जिसका नाम रिसाला-ए-साहिबिया है। जहाँ आरा की तस्नीफ़ मुई’नुद्दीन चिश्ती की सवानिह उस दौर का एक बड़ा अदबी कारनामा माना जाता है। ख़्वाजा बुज़ुर्ग के इंतिल के चार-सौ साल बा’द उन की सवानिह लिखना एक कमाल था। जहाँ आरा ने अजमेर शरीफ़ की ज़ियारत के मौक़ा’ पर ख़ुद को फ़क़ीरा-ओ-एक सूफ़ी ख़ातून माना। जहाँ आरा ये कहा करती थी कि वो ख़ुद और अपने भाई दाराशिकोह दोनों ही तैमूरी ख़ानदान के वो अफ़राद हैं जिन्हों ने सूफ़ी तरीक़ा अपनाया है।जहाँ आरा ने सूफ़ी तरीक़ों की पासबानी की।बिल-ख़ुसूस उसने सूफ़ी अदब की तर्तीब में काफ़ी दिलचस्पी ली। उस ने क्लासिकी अदब और सूफ़ी अदब के तर्जुमात में काफ़ी दिलचस्पी ली। उसने 1681 ई’स्वी में दिल्ली में वफ़ात पाई। जहाँ आरा की तदफ़ीन ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह के क़रीब हुई। उस के मज़ार पर कत्बा लिखा हुआ है जो उनकी सादा ज़िंदगी की अ’क्कासी करता है।