अमीर हसन अला सिज्ज़ी की सूफ़ी कहानियाँ
हिकायात- 6
वह अक्सर कहा करते कि नमाज़-ओ-रोज़ा और तस्बीह-ओ-औराद सब देग के मसाले हैं। अस्ल चीज़ देग में गोश्त होता है। जब तक गोश्त न हो उन मसालों से कुछ नहीं बनता।
हिकायात- 3
"एक बुज़ुर्ग थे जो बाग़बानी के ज़रिये' गुज़र बसर करते थे। हाकिम-ए-वक़्त को लोगों ने उनके ख़िलाफ़ वरग़लाया औऱ बर-गश्ता कर दिया। एक रोज़ वह हाकिम उन बुज़ुर्ग के बाग़ीचे के पास से गुज़र रहा था कि मुख़ालिफ़ों ने याद दिलाया कि यह फुलाँ का बग़ीचा है। हाकिम ठहर
हिकायात- 17
एक ना-बीना वली थे। एक मुख़ालिफ़ आया और उनके सामने बैठ गया। इस नियत से कि उन वली का इम्तिहान करे ।चुनांचे दिल में ख़याल किया कि यह आंखों से मा'ज़ूर हैं ।पस ज़रूरी है कि इनके आ'लम -ए-बातिन में भी कुछ कमी हो। लिहाज़ा उन ना-बीना साहिब से मुख़ातिब हो कर
हिकायात- 16
"हज़रत इब्राहीम अदहम रहमतुल्लाह अ'लैह के मरातिब और मनाक़िब पर गुफ़्तुगू होने लगी। इरशाद हुआ कि वह नौ साल तक एक ग़ार में मुक़ीम रहे। उस ग़ार में एक चश्मा जारी था। अदहम उसी चश्मे पर मुक़ीम थे और ख़ुदा की इ'बादत किया करते थे। एक रात को सख़्त सर्दी थी ।उन्हें
हिकायात- 2
"अख़्वानः यानी क़व्वाली सुनने वाले सब हम ख़याल हम जमाअ'त के हों। मकानः जगह मौज़ूं हो ,साफ़ सुथरा पुर फ़ज़ा मकान हो और ऐसी जगह न हो जिस से दूसरों को तक्लीफ़ पहुंचे। ज़मानः वक़्त मुनासिब हो। यह नहीं कि रोज़ा नमाज़, काम काज सब छोड़ छाड़ बस क़व्वाली सुनते
हिकायात- 4
शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया सियाहत बहुत करते थे। एक दफ़ा' जौलक़ियों (मलंगों) के एक गिरोह में पहुंचे और उनके दर्मियान बैठ गए। उस मज्मा' में एक नूर पैदा हुआ। जब ग़ौर से देखा तो उन लोगों में एक शख़्स नज़र आया कि नूर उस से निकल रहा था। (यह) आहिस्ता से उसके पास
हिकायात- 7
शैख़ अबू सई'द अबुल-ख़ैर रहमतुल्लाह अ'लैह जुमे' के रोज़ नमाज़ के लिए अपनी ख़ानक़ाह से बाहर निकले। मुरीदों से पूछने लगे कि जामा' मस्जिद का रास्ता कौन सा है। किस तरह जाना चाहिए? हाज़िरीन में से किसी ने कहा कि रास्ता यह रहा! उनसे पूछा गया कि इतनी दफ़ा' आप
हिकायात- 8
जब शेर जंगल से निकलता है तो कोई नहीं पूछता कि यह शेर नर है या मादा। यानी बात तो जब है कि आदम का फ़रज़ंद ताअ'त व तक़्वा में मशहूर हो चाहे मर्द हो चाहे औ'रत।
हिकायात- 14
आदाब-ए- मज्लिस और पीर की ख़िदमत में हाज़िरी और बैठने के आदाब और जगह हासिल करने का ज़िक्र निकला। इरशाद हुआ कि अदब यह है कि जब किसी मज्लिस में आएं तो जो जगह ख़ाली देखें वहां बैठ जाएं या'नी जब पीर की ख़िदमत में आएं तो ऊंची या नीची जगह के ख़याल में न रहें।
हिकायात- 15
फुक़रा के लेन देन और ख़रीद फ़रोख़्त के बारे में फ़रमाया कि शैख़ बद्रुद्दीन इस्हाक़ अ'लैहिर्रहमत-वल- गुफ़रान ने किसी को एक शतरंजी दी और कहा कि उसे बाज़ार में ले जा कर बेच डालो। फिर फ़रमाया कि दर्वेशाना बेचना! उनसे पूछा गया कि दर्वेशाना बेचने का क्या तरीक़ा
हिकायात- 19
शैख़ अ'ली हिज्वेरी रहमतउल्लाह अ'लैह ने जब कश्फ़ुलमहजूब लिखी तो शुरु किताब में अपने नाम का ज़िक्र किया। उसके बा'द दो तीन जगह और (ज़िक्र फ़रमाया) और फिर अपना नाम लिखने की वज्ह यह बयान फ़रमाई कि मैंने इस से पहले अर'बी अशआ'र कहे थे और उनमें अपना नाम कहीं
हिकायात- 9
एक बक़्क़ाल (बनिये) थे जो पच्चीस साल रोज़े से रहे और किसी को उनके हाल की ख़बर न हुई। इस हद तक कि उनके घर वालों को भी मा'लूम न हुआ कि वह रोज़ा रखते है। अगर घर में होते तो यह ज़ाहिर करते कि दुकान में कोई चीज़ खा ली है। और अगर दुकान में होते तो यह ज़ाहिर
हिकायात- 11
एक रोज़ सुब्ह के वक़्त कोई दीवाना एक दरवाज़े पर खड़ा था ।जब दरवाज़ा खोला गया तो ख़िल्क़त बाहर आई। हर शख़्स किसी जानिब रवाना हो गया ।कोई दाईं तरफ़ कोई बाईं तरफ़ । कोई सामने। हर एक किसी तरफ़ चला गया। दीवाने ने जब यह देखा तो बोला कि यह लोग परागंदा और अलग
हिकायात- 20
फिर तवक्कुल का ज़िक्र निकला। फ़रमाया कि तवक्कुल के तीन दर्जे हैं। पहला दर्जा यह है कि जैसे कोई शख़्स अपने दा'वे के लिए किसी को अपना वकील करे और वह वकील आ'लिम भी हो और मुवक्किल का दोस्त भी। पस उस मुवक्किल को यह इत्मिनान रहेगा कि मेरा वकील अपने काम और
हिकायात- 12
पैग़म्बर मूसा अ'लैहिस्सलाम के अहवाल में से बयान फ़रमाया कि अगर कोई आता और खोटा दिरम उनको देता और जो कुछ उन्होंने पकाया होता उसे ख़रीदता तो वह उस दिरम को ले लेते अगरचे जानते होते कि खोटा है। मगर ख़रीदार के सामने कुछ न कहते। और जो खरा दिरम लाता तो उसको
हिकायात- 18
शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया का ज़िक्र (ख़ैर) आया कि वह शैख़ुश्शुयूख़ शहाबुद्दीन सुहरवर्दी की ख़िदमत में गए मगर उनकी ख़िदमत में सतरह रोज़ से ज़ियादा नहीं रहे। सतरहवें दिन शैख़ शहाबुद्दीन ने उनको ने'मतों से मालामाल कर दिया। जब शैख़ बहाउद्दीन हिंदुस्तान आए तो
हिकायात- 21
लाहौर में एक आदमी थे। उनको शैख़ ज़िन्दा दिल कहते थे। बहुत बुज़ुर्ग आदमी थे। एक दफ़ा' ई'द के दिन लोग नमाज़ पढ कर वापस आए तो शैख़ ने आसमान की तरफ़ रुख़ कर के कहा कि आज ई'द है। हर ग़ुलाम को अपने आक़ा से ई'दी मिलेगी। मुझे भी ई'दी दे! जब यह बात उन्होंने कहीं
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere