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गुरू समरथ सिर पर खड़े कहा कमी तोहि दास
ऋध्दि सिध्दि सेवा करैं मुक्ति न छाड़ै पास
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कबीर गुरू सब को चहैं, गुरू को चहै न कोय
जब लग आस सरीर की तब लग दास न होय
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यही प्रेम निरबाहिये रहनि किनारे बैठि
सागर तें न्यारा रहा गया लहरि में पैठि
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पतिबरता बिभिचारिनी एक मंदिर में बास
वह रँग-राती पीव के ये घर घर फिरै उदास
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कीड़े काठ जो खाइया खात किनहूँ नहिं दीठ
छाल उपारि जो देखिया भीतर जमिया चीठ
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प्रेम पाँवरी पहिरि कै धीरज काजर दैइ
सील सिंदूर भराइ कै यों पिय का सुख लेइ
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प्रेंम छिपाया ना छिपै जा घट परघट होय
जो पै मुख बोलै नहीं तो नैन देत हैं रोय
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आया प्रेम कहाँ गया देखा था सब कोय
छिन रोवै छिन में हँसै सो तो प्रेम न होय
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कायथ कागद काढ़िया लेखा वार न पार
जब लगि स्वास सरीर में तब लगि नाम सँभार
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माली आवत देखि कै कलियाँ करैं पुकारि
फूली फूली चुनि लिये काल्हि हमारी बारि
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सब कछु गुरू के पास है पइये अपने भाग
सेवक मन से प्यार है निसु दिन चरनन लाग
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उत्तम प्रीति सो जानिये सतगुरु से जो होय
गुनवंता औ द्रब्य की प्रीति करै सब कोय
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नैनों की करि कोठरी पुतली पलँग बिछाय
पलकों की चिक डारि कै पिय को लिया रिझाए
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हँस हँस कंत न पाइया जिन पाया तिन रोय
हाँसी खेले पिय मिलैं तो कौन दुहागिनि होय
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अंक भरी भरि भेंटिये मन नहिं बाँधै धीर
कह 'कबीर' ते क्या मिले जब लगि दोय सरीर
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'कबीर' चंदन के निकट नीम भी चंदन होय
बूड़े बाँस बड़ाइया यों जनि बूड़ो कोय
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बिरह जलन्ती मैं फिरों मो बिरहिनी को दुक्ख
छाँह न बैठों डरपती मत जलि उट्ठै रूक्ख
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नाम न रटा तो क्या हुआ जो अंतर है हेत
पतिबरता पति को भजै मुख से नाम न लेत
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जहाँ प्रेम तहँ नेम नहि तहाँ न बुधि ब्यौहार
प्रेम मगन जब मन भया तब कौन गिनै तिथि बार
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सुर नर थाके मुनि जना थाके बिस्नु महेस
तहाँ 'कबीरा' चढ़ि गया सत-गुरु के उपदेस
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जा घट में साईं बसै सो क्यों छाना होय
जतन जतन करि दाबिये तौ उँजियारा सोय
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दास दुखी तो हरि दुखी आदि अंत तिहुँ काल
पलक एक में परगट ह्वै छिन में करै निहाल
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सेवक कुत्ता गुरू का मोतिया वा का नाँव
डोरी लागी प्रेम की जित खैंचै तित जाव
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