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कलाम10
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ना'त-ओ-मनक़बत7
सावन1
होली1
कृष्ण भक्ति सूफ़ी कलाम3
मुज़्तर ख़ैराबादी के दोहे
मैं खोटी हूँ तुम खरे खरे तुम्हारे काज
खोट खोट सब छाँट दो खरा बना दो आज
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पी मोरा मन पीउ की पी दिन हैं मैं रैन
जैसे नजरिया एक है देखत के दो नैन
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तुम ही जगत-महराज हो और 'मुज़्तर' तुमरे दास
जिन हालन चाहो रखो पर रखना अपने पास
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तन पाया तब मन मिला मन पाया तब पीउ
तन-मन दोनों पी के हैं पी का नाम है जीउ
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चित्त मोरा बे-चित्त किया मार के नैनाँ बान
मित्र बने तुम चित्र के चित्र किया क़ुर्बान
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दर्शन जल की प्यास है कुछ भी नहीं है चाव
तुम जग-दाता बज रहे तो काम हमारे आओ
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तन मीटे मन वार दे यही प्रीत की आन
जो अपना आपा तजे सो वा का दासी जान
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नैणा वही सराहिए जिन नैना बिच लाज
बड़े भए और बिस भरे तो आवन कौने काज
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जब बिप्ता पड़ जात है छोड़ देत सब हाथ
देत अँधेरी रैन में कब परछाईं साथ
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मालिक ही के नाम की माला फेरत लोग
मालिक मेटे तब मिटे निपट बिपत का रोग
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere