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رتن کوری بائی

رتن کوری بائی

دوہا 2

बरन बरन बर तंबुवन, दीन्हो तान वितान

अति फूले फूले फिरत, डेरा परत जान ।।

जबते मथुरा तन चितै, तजि ब्रज-जन यदुनाथ

विरह बिथा बृज में बढ़ी, तहँ सब भये अनाथ ।।

प्रिय तीरथ कुरुखेत सब, आये ग्रहण नहान

यदुपति राधा गोप गण, नन्दादिक वृषभान ।।

गोप एक नट-भेष सजि, आयो बीच बजार

तहँ खरभर लशकर पर्यो, सो अति रह्यो निहार ।।

इक यादव हँसिके कह्यो, कहाँ तुम्हारो बास

अति सुन्दर तन छवि बनी, नाम कहहु परकास ।।

तब उनहू कहि तुम कहहु, काके सँग कित ठाउँ

द्वारावति-पति कटक यह, कह्यो यदुव निज नाउँ ।।

सुनत द्वारका नाम तिहि, लियो विरह उर छाय

हा नँद-नंदन कन्त कहि, गयो ग्वाल मुरझाय ।।

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भये मगन सब प्रेम रस, भूलि गए निज देह

लघु दीरघ वै नारि नर, सुमिरत श्याम-सनेह ।।

कहत परस्पर युवति मिलि, लै लै कर अँकवार

प्रीतम आये का सखी, तन साजहु श्रृंगार ।।

इक आई आनँद उमंगि, प्यारिहिं देत बधाय

प्राणनाथ सुखदैन इहँ, मोहन उतरे आय ।।

तहँ राधा की कछु दशा, वर्णत आवे नाहि ।।

मलिन वेष भूषण रहित, बिवस रहित तन माहिं ।।

कबहुँ झुरावत बिरह-वश, पीत वरण ह्वै जाय

कबहूँ व्यापत अरुणता, प्रेम-मगन मुद छाय ।।

कान्ह कान्ह कबहूँ कहत, कबहुँ रटत निज नाम

मौन साधि रहि जात जब, श्रमित होत अति बाम ।।

चख चितवत जित तित हरी, श्रवण मुरलि धुनि-लीन

श्याम बास बसि नाक मणि, रूप पयोनिधि मीन ।।

तन मध धन गृह जनन की, नेकहु सुधि तिहिं नाहिं

चितवत काहू नहिं दृगन, लगन लगी उर माहिं ।।

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چوپائی 2

 

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