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सब पर्वत स्याही करूँ घोलूँ समुंदर जाय
धरती का कागद करूँ गुरु अस्तुति न समाय
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गुरु हैं चारि प्रकार के अपने अपने अंग
गुरु पारस दीपक गुरु मलयागिरि गुरु भृंग
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परमहंस तारन तरन गुरु देवन गुरु देव
अनुभै वाणी दीजिये सहजो पावै भेव
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साध कहावै आप में चलै दुष्ट की चाल
बाद लिये फूला फिरै बहुत बजावै गाल
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गुरु मग दृढ़ पग राखिये डिग मिग डिग मिग छाँड
'सहजो' टेक टरै नहीं सूर सती जो माँड
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निर्मल आनँद देत हौ ब्रह्म रूप करि देत
जीव रूप की आपदा व्याधा सब हरि लेत
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ज्ञान भक्ति अरु जोग का घट लेवै पहँचान
जैसी जाकी बुद्धि है सोइ बतावै ध्यान
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जो कछु करै तो मन दुखी मेटैं गुरु मुख रीत
भेद वचन समझै नहीं चलै चाल विपरीत
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हरि करिपा जो होय तो नाहिं होय तो नाहिं
पै गुरु किरपा दया बिनु सकल बुद्धि बहि जाहिं
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अड़सठ तीरथ गुरु चरण परवी होत अखंड
'सहजो' ऐसो धाम ना सकल अंड ब्रह्मंड
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गुरू वचन हियरे धरै ज्यों किर्पिन के दाम
भूमि गड़े माथे दिये 'सहजो' लहै तो राम
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गुरु अज्ञा मानै नहीं गुरुहिं लगावें दोष
गुरु निंदक जग में दुखी मुये व पावै मोष
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अब तीरथ गुरु के चरन नित ही परवी होय
'सहजो' चरनोदक लिये पाप रहत नहिं कोय
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सद्गुरुमहिमा - गुरु आज्ञा दृढ करि गहै गुरुमत सहजो चाल
रोम रोम गुरु को रटै सो सिष होय निहाल
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सिख का माना सतगुरू गुरु झिड़कै लख बार
'सहजो' द्वार न छोड़िये यही धारना धार
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सद्गुरुमहिमा - कर जोरूं प्रणाम कारि धरूँ चरन पर सीस
दादा गुरु सुखदेव जी पूरण विश्वा बीस
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सद्गुरुमहिमा - चरनदास समरथ गुरु सर्व अंग तिहिमाहिं
जैसे को तैसा मिलै रीता छाँड़ै नाहिं
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गुरु पग निश्चै परसिये गुरु पग हृदय राख
'सहजो' गुरुपग ध्यान करि गुरु बिन और न भाख
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