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सूफ़ी कहानी
शाही मुनादी सुनकर दल्क़क मस्ख़रे का गांव से शहर को दौड़ना - दफ़्तर-ए-शशुम
बादशाह-ए-तिरमिज़ के पास एक मस्ख़रा दल्क़क बादशाह का बहुत चहेता था। एक-बार रुख़्सत लेकर अपने गांव
रूमी
शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
सूफ़ी कहानी
शाही मुसाहिब का अपने सिफ़ारशी से रंजीदा होना
एक बादशाह अपने मुसाहिब पर नाराज़ हुआ और चाहा कि ऐसी सज़ा दे कि दिल से
रूमी
ना'त-ओ-मनक़बत
हरीम-ए-हुस्न-ए-हक़ दरबार-ए-महबूब-ए-इलाही हैकि दीदार-ए-ख़ुदा दीदार-ए-महबूब-ए-इलाही है
ज़हीन शाह ताजी
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बैत
ख़्वाजा-ए-हिंद वो दरबार है आ'ला तेरा
ख़्वाजा-ए-हिंद वो दरबार है आ'ला तेराकभी महरूम नहीं माँगने वाला तेरा
हसन रज़ा बरेलवी
कलाम
अमीरी कैसी क्या ये मर्तबा शाही वज़ीरी कातू ऐ ग़ाफ़िल शनासा-ए-मदारिज हो फ़क़ीरी का
ग़ुलाम अ’ली रासिख़
दोहरा
ख़्वाजा मुईनुद्दीन के आये हम दरबार
ख़्वाजा मुईनुद्दीन के आये हम दरबारपाई मुरादें जिय की, लागे नाहीं बार
शाह आलम सानी
ना'त-ओ-मनक़बत
बड़ा दरबार-ए-'आली है निज़ामुद्दीन चिश्ती काजहाँ में फ़ैज़ जारी है निज़ामुद्दीन चिश्ती का
ख़्वाजा नाज़िर निज़ामी
ना'त-ओ-मनक़बत
दिलचस्प किस क़दर है दरबार चिश्तियों कानज़रों फिर रहा है मज्मा' बहिश्तियों का
तजम्मुल जलालपुरी
ना'त-ओ-मनक़बत
सख़ी का दरबार सज रहा है ग़रीब ख़ैरात पा रहे हैंउठो ऐ मंगतो कि मेरे दाता करम की दौलत लुटा रहे हैं
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
तेरे दरबार में आए हैं ले कर दिल का नज़्रानःउठा नज़रें पिला साग़र बना दे हम को दीवानः
अब्दुल हादी काविश
ना'त-ओ-मनक़बत
अ'ब्दुल सत्तार नियाज़ी
ना'त-ओ-मनक़बत
ज़िंदगी का है मज़ा तो आप के दरबार मेंहै ख़ुदा वालों की जन्नत कूचा-ए-दिलदार में