ख़ुदी पर अशआर
ख़ुदीः ख़ुदी फ़ारसी
ज़बान से माख़ूज़ लफ़्ज़-ए-‘ख़ुद’ के साथ ‘या’ बतौर-ए-लाहिक़ा लगाने से “ख़ुदी” बुना है। उर्दू में बतौर-ए-इस्म इस्ति’माल होता है। तसव्वुफ़ में ये लफ़्ज़ बड़ी अहमियत का हामिल है। अ’ल्लामा इक़बाल की “असरार-ए-ख़ुदी” इसी ख़ुदी की तशरीहात हैं।ये ख़ुदी हक़ और इन्सान के दरमियान सबसे बड़ा हिजाब है।जब तक ख़ुदी बाक़ी है हक़ तक रसाई मुम्किन नहीं। हज़रत शाह नियाज़ ने इसी की तरफ़ इस शे’र में इशारा किया है: अपना हिजाब आप है तू ऐ मियाँ नियाज़ उठने में तेरे होता है उठना हिजाब का ख़ुदी की वज़ाहत इस शे’र से भी होती है: अज़ ख़ूदी बे-ज़ार गश्तन दोस्त रा जुस्तन बहाल तर्क-ए-दरमाँ कर्दन-ओ-बा-दर्द इ’श्क़श साख़्तन (तर्जुमा:या’नी ख़ुदी से बेज़ार होना और दोस्त को दिल-ओ-जान से ढूंढना और इ’लाज को तर्क कर के दर्द-ए-इ’श्क़ को अपनाना)।
नीस्ती हस्ती है यारो और हस्ती कुछ नहीं
बे-ख़ुदी मस्ती है यारो और मस्ती कुछ नहीं
जब तलक मेरी ख़ुदी बाक़ी रही सब कुछ था
रह गया फिर तो फ़क़त नाम-ए-ख़ुदा मेरे बा’द
वो उ’रूज-ए-माह वो चाँदनी वो ख़मोश रात वो बे-ख़ुदी
वो तसव्वुरात की सरख़ुशी तिरे साथ राज़-ओ-नियाज़ में
कभी दैर-ओ-का'बः बता दिया कभी ला-मकाँ का पता दिया
जो ख़ुदी को हम ने मिटा दिया तो वो अपने-आप में पा गए
ज़िंदगी को बेच डाला बे-ख़ुदी के जाम पर
एक ही साग़र से दिल की तिश्नगी जाती रही
मस्लहत ये है ख़ुदी की ग़फ़लतें तारी रहें
जब ख़ुदी मिट जाएगी बंद: ख़ुदा हो जाएगा
बे-ख़ुदी में भी तिरा नाम लिए जाते हैं
रोग ये कैसा लगा है तिरे मस्ताने को
जब ख़ुदी अहदियत ने दूर किया
नूर-ए-वहदत ने तब ज़ुहूर किया
नशीली निगाहों के मारे हुओं को बस इक बे-ख़ुदी में गुज़ारे हुओं को
तेरी मस्त-आँखों के क़ुर्बान साक़ी उन्हें साग़रों से पिलाना पड़ेगा
जुनूँ ज़ाहिर हुआ रुख़ पर ख़ुदी पर बे-ख़ुदी छाई
ब-क़ैद-ए-होश मैं जब भी क़रीब-ए-आस्ताँ पहुँचा
ख़िरद है मजबूर अक़्ल हैराँ पता कहीं होश का नहीं है
अभी से आलम है बे-ख़ुदी का अभी तो पर्दा उठा नहीं है
गुज़र जा मंज़िल-ए-एहसास की हद से भी ऐ 'अफ़्क़र'
कमाल-ए-बे-खु़दी है बे-नियाज़-ए-होश हो जाना
किसी की मस्त-निगाही ने हाथ थाम लिया
शरीक-ए-हाल जहाँ मेरी बे-ख़ुदी न हुई
तेरे नैन-ए-पुर-ख़ुमार कूँ सरमस्त-ए-बादा-नाज़
या बे-ख़ुदी का जाम या सहर-ए-बला कहूँ
ख़ुदी ख़ुद-ए’तिमादी में बदल जाये तो बंदों को
ख़ुदा से सरकशी करने की नौबत आ ही जाती है
तू ने अपना जल्वा दिखाने को जो नक़ाब मुँह से उठा दिया
वहीं हैरत-ए-बे-खु़दी ने मुझे आईना सा दिखा दिया
नहीं बंदा हक़ीक़त में समझ असरार मा'नी का
ख़ुदी का वहम बरहम ज़न पिछे बे-ख़ुद ख़ुदाई कर
आना है जो बज़्म-ए-जानाँ में पिंदार-ए-ख़ुदी को तोड़ के आ
ऐ होश-ओ-ख़िरद के दीवाने याँ होश-ओ-ख़िरद का काम नहीं
‘ज़फ़र’ उस से छुट के जो जस्त की तो ये जाना हम ने कि वाक़ई
फ़क़त एक क़ैद ख़ुदी की थी ना क़फ़स था कोई ना जाल था
जोई अव्वल सोई आख़िर जोई ज़ाहिर सोई बातिन
ख़ुदी के तर्क में जल्दी से मख़्फ़ी सब अ'याँ होगा
कि ख़िरद की फ़ित्नागरी वही लुटे होश छा गई बे-ख़ुदी
वो निगाह-ए-मस्त जहाँ उठी मिरा जाम-ए-ज़िंदगी भर गया
उस के होते ख़ुदी से पाक हूँ मैं
ख़ूब है बे-ख़ुदी नहीं जाती
उ’मूमन ख़ाना-ए-दिल में मोहब्बत आ ही जाती है
ख़ुदी ख़ुद-ए’तिमादी में बदल जाये तो बंदों को
बे-ख़ुदी की यही तकमील है शायद ऐ दोस्त
तू जो आता है तो मैं होश में आ जाता हूँ
वफ़ूर-ए-बे-ख़ुदी-ए-बज़्म-ए-मय न पूछो रात
कोई ब-जुज़ निगह-ए-यार होशियार न था
'बेदम'-ए-ख़स्ता है कहाँ अस्ल में कोई और है
ज़मज़मा-संज बे-ख़ुदी नग़्मा-तराज़ साज़-ए-इश्क़
तू ऐ मोहब्बत गवाह रहना कि तेरे 'मुज़्तर' को वक़्त-ए-आख़िर
ख़याल-ए-तर्क-ए-ख़ुदी रहा है तो दिल में याद-ए-ख़ुदा रही है
हम तो अपनी बे-ख़ुदी-ए-शौक़ में सरशार थे
आप से किस ने कहा था ख़ुद-नुमा हो जाइये
अब न अपना होश है मुझको न कुछ उस का ख़्याल
बे-ख़ुदी तारी है जब से हो गई रफ़्तार और
न छेड़ ऐ हम-नशीं कैफ़ियत-ए-सहबा के अफ़्साने
शराब-ए-बे-ख़ुदी के मुझ को साग़र याद आते हैं
क्या कहूँ क्या ला-मकाँ में उ’म्र 'मुज़्तर' काट दी
बे-ख़ुदी ने जिस जगह रखा वहाँ रहना पड़ा
वस्ल ऐ’न दूरी है बे-ख़ुदी ज़रूरी है
कुछ भी कह नहीं सकता माजरा जुदाई का
जहान-ए-बे-ख़ुदी में मस्ती-ए-वहदत जो ले जाये
फ़रिश्ते लें क़दम मेरे वो हूँ मैं रिंद-ए-मस्तान:
क़दम क़दम पे रही एक याद दामन-गीर
तुम्हारी बज़्म में ये मुझ को बे-ख़ुदी न हुई
सर जब से झुकाया है दर-ए-यार पे मैं ने
मेहराब-ए-ख़ुदी जल्वा-गह-ए-शम-ए-हरम है
देख के बे-ख़ुदी मिरी आज वो मुस्कुरा दिया
इश्क़-ए-जुनूँ-मिज़ाज ने हुस्न को गुदगुदा दिया
ये नर्म-ओ-नातवाँ मौजें ख़ुदी का राज़ क्या जानें
क़दम लेते हैं तूफ़ाँ अज़्मत-ए-साहिल समझते हैं
मय-ख़ाना में ख़ुदी को नहीं दख़्ल शैख़-जी
बे-ख़ुदी हुआ है जिन ने पिया है वो जाम-ए-ख़ास
'सीमाब' कोई मर्तबा मंसूर का न था
लफ़्ज़-ए-ख़ुदी की शरह न मशहूर कर दिया
कह दिया फ़िरऔ’न ने भी मैं ख़ुदा कर के ख़ुदी
हो के बे-ख़ुद जब कहे इंकार की हाजत नहीं
'मर्दां' जो कोई डूबे दरिया-ए-इश्क़ में वो
छूटे ख़ुदी से अपने हुब्ब-ए-वतन से निकले
निगाह-ए-यार मिरी सम्त फिर उठी होगी
सँभल सकूँगा न मैं ऐसी ये बे-ख़ुदी होगी
शह-ए-बे-ख़ुदी ने अता किया मुझे अब लिबास-ए-बरहनगी
न ख़िरद की बख़िया-गरी रही न जुनूँ की पर्दा-दरी रही
न वो होश है न वो बे-ख़ुदी न ख़िरद रही न जुनूँ रहा
ये तिरी नज़र की हैं शोख़ियाँ ये कमाल है तिरे नाज़ में
दोई जा के रंग-ए-सफ़ा रह गया
ख़ुदी मिटते मिटते ख़ुदा रह गया
कहाँ ‘शम्स’ बंदा कहाँ तू ख़ुदाया
ख़ुदा-ओ-ख़ुदी हम भुलाए हुए हैं
क्यूँ ये ख़ुदा के ढूँडने वाले हैं ना-मुराद
गुज़रा मैं जब हुदूद-ए-ख़ुदी से ख़ुदा मिला
ये किस ने निगाहों से साग़र पिलाए ख़ुदी पर मेरी बे-ख़ुदी बनके छाए
ख़बरदार ऐ दिल मक़ाम-ए-अदब है, कहीं बादानोशी पे धब्बा ना आए
मुश्किल है ता कि हस्ती है जावे ख़ुदी का शिर्क
तार-ए-नफ़स नहीं है ये ज़ुन्नार साथ है
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere