चरनदास जी
दोहा 49
अपना करि सेवन करैं तीन भाँति गुर देव
पंजा पच्छी कुंज मन कछुवा दृष्टि जु भेव
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सतगुरू के मारे मुए बहुरि न उपजै आय
चौरासी बंधन छुटैं हरिपद पहुँचै जाय
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गुरू के आगे जाय करि ऐसे बोलै बोल
कछू कपट राखै नहीं अरज करै मन खोल
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दया होय गुरूदेव की भजै मान अरू मैन
भोग वासना सब छुटै पावै अति ही चैन
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दृष्टि पड़ै गुरूदेव की देखत करें निहाल
औरैं मति पलटैं तवै कागा होत मराल
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