Font by Mehr Nastaliq Web
Sufinama
noImage

चरनदास जी

1703 - 1839 | मेवाड़, भारत

चरनदास जी के दोहे

37
Favorite

श्रेणीबद्ध करें

सतगुरू के मारे मुए बहुरि उपजै आय

चौरासी बंधन छुटैं हरिपद पहुँचै जाय

अपना करि सेवन करैं तीन भाँति गुर देव

पंजा पच्छी कुंज मन कछुवा दृष्टि जु भेव

ऐसी मारी खैंच कर लगी वार गइ पार

जिनका आपा ना रहा भये रूप ततसार

हरि रूठैं कुछ डर नहीं तू भी दे छुटकाय

गुरू को राखौ सीस पर सब बिधि करैं सहाय

सतगुरू ढूँढा पाइये नहीं सुहेला होय

सिष भी पूरा कोइ हो सानी माटी जोय

अण्डा जब आगे गिरै तब गुरू लेवैं सेई

करै बराबर आपनी सिख को निस्सन्देह

जित जित इन्द्री जात है तित मन कूँ ले जात

बुधि भी संगहि जात है ये निस्चय करि बात

सतगुरू शब्दी तेग़ है लागत दो करि देही

पीठ फेरि कायर भजै सूरा सन्मुख लेहि

दुर्जन के फूटे बिना तेरी होय जीत

'चरनहिदास' बिचारि करि ऐसी कहिये रीत

सतगुरू शब्दी मारिया पूरा आया वार

प्रेमी जूझै खेत में लगा राखा तार

जित इन्द्री मन हूँ गया रही कहाँ सूँ बुध्दि

'चरनदास' यौं कहत हैं करि देखो तुम सुध्दि

न्यारे न्यारे चखत है अपने अपने स्वाद

इन पांचौ में प्रीत है कछु बाद बिबाद

जौ वे बिछुरैं घड़ी भी तौ गंदा होइ जाय

'चरनदास' यौं कहत हैं गुरू को राखि रिझाय

चलौ करै थिर ना रहै कोटि जतन करि राख

ये जबहीं बस होयगा इन्द्रिन के रसनाख

ये आपा तुम कूँ दिया जित चाहौ तित राखि

'चरनदास' द्वारे परो भावै झिड़कौ लाखि

जुदी जुदी पांचौ कहूँ एक एक का भेद

जो कोइ इन कूँ बस करै सबहीं छूटैं खेद

सतगुरू मेरा सूरमा करै शब्द की चोट

मारै गोला प्रेम का ढहै भरम का कोट

मुख सेती बोलन थका सुनै थका जो कान

पावन सूँ फिरवा थका सतगुरू मारा बान

सतगुरू शब्दी तीर है तन मन कीयो छेद

बेदर्दी समझै नहीं बिरही पावै भेद

जाति बरन-कुल आस्रम मान बड़ाई खोय

जब सतगुरू के पग लगै साँच शिष्य ह्वै सोय

माता सूँ हरि सौ गुना जिन से सौ गुरूदेव

प्यार करैं औगुन हरैं 'चरनदास' सुकदेव

सतगुरू शब्दी सेल है सहै धमूका साध

कायर ऊपर जो चलै तौ जावै बर्बाद

जब सतगुरू किरपा करैं खोलि दिखावैं नैन

जग झूठा दीखन लगै देह परे की सैन

गुरू के आगे जाय करि ऐसे बोलै बोल

कछू कपट राखै नहीं अरज करै मन खोल

दया होय गुरूदेव की भजै मान अरू मैन

भोग वासना सब छुटै पावै अति ही चैन

दृष्टि पड़ै गुरूदेव की देखत करें निहाल

औरैं मति पलटैं तवै कागा होत मराल

इन्द्री मन के बस करै मन करै बुधि के संग

बुधि राखै हरि पद जहाँ लागै ध्यान अभंग

पितु सूँ माता सौगुना सुत को राखै प्यार

मन सेती सेवन करै तन सूँ डाँट उरू गार

सतगुरू शब्दी लागिया नावक का सा तीर

कसकत है निकसत नहीं होत प्रेम की पीर

शब्द बान मोहिं मारिया लगी कलेजे माहिं

मारि हँसे सुकदेव जी बाक़ी छोड़ी नाहिं

इन्द्रिन सूँ मन जुदा करि सुरति निरति करि सोध

उपजै ना बिष बासना 'चरनदास' कर बोध

इन्द्री रोके ते रुकैं और जतन नहिं कोय

मन चंचल रिझवार है रसिक सवादी होय

कांचे भांडे सूँ रहै ज्यों कुम्हार का नेह

भीतर सूँ इच्छा करै बाहर चाटै देह

मैं मिरगा गुरू पारघी शब्द लगायो बान

'चरनदास' घायल गिरे तन मन बीधे प्रान

सतगुरू शब्दी बान है अंग अंग डारे तोड़

प्रेम खेत घायल गिरे टाँका लगै जोड़

एक कोन मेवा मिलै, एक चने भी नाहिं

कारन कौन दिखाइये, करि चरनन की छाँहिं

करी हरि करी भक्ति हीं गुरू सेवा तजि दीन्ह

सुनी हरि की गुन कथा सत संगति नहिं कीन्ह

अभिमानी मींजे गये लूट लिये धन बाम

निरअभिमानी हो चले पहुँचे हरि के धाम

जो जानै या भेद कू और करै परबेस

सो अबिनासी होत है छूटैं सकल कलेस

पहिले साधै बचन कूँ, दूजे साधै देह

तीजे मन कूँ साधिये, उर सूँ राखै नेह

चरनदास यों कहत हैं, सुनो गुरू सुकदेव

ज्योँ करि होवहिं कर्म हूँ, ता कूँ कहिये भेव

गगन मध्य जो कंवल है बाजत अनहद तूर

दल हजार को कमल है पहुंचै गुरू मत सूर

इन्द्री मन मिलि होत है बिषय बासना चाह

उपजै जैसे काम हीं नारी मिलि अरू नाह

नाम ब्रह्म का है नहीं है तो वह ओंकार

जानै आपन को वहीं मैं हौं तत्व अपार

चरनदास यों कहत है इन्द्री जीतन ठान

जग भूलै हरि कूं मिलै पावै पद निर्बान

अपने घर का दुख भला पर घर का सुख छार

ऐसे जानै कुल बधऊ सो सतवंती नार

दूध मध्य ज्यों घीव है मेहंदी माहीं रंग

जतन बिना निकसै नहीं 'चरनदास' सो ढंग

जिन हीं के उपदेस कूँ, राखै अपनो चित्त

ता कूँ मनन सदा करै, भूलै नहिं नित प्रित्त

रंग होय तौ पीव को आन पुरूष बिष रूप

छाँह बुरी पर घरन की अपनी भली जु धूप

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

Recitation

Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

Get Tickets
बोलिए