चरनदास जी के दोहे
सतगुरू के मारे मुए बहुरि न उपजै आय
चौरासी बंधन छुटैं हरिपद पहुँचै जाय
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अपना करि सेवन करैं तीन भाँति गुर देव
पंजा पच्छी कुंज मन कछुवा दृष्टि जु भेव
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ऐसी मारी खैंच कर लगी वार गइ पार
जिनका आपा ना रहा भये रूप ततसार
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हरि रूठैं कुछ डर नहीं तू भी दे छुटकाय
गुरू को राखौ सीस पर सब बिधि करैं सहाय
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सतगुरू ढूँढा पाइये नहीं सुहेला होय
सिष भी पूरा कोइ हो सानी माटी जोय
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अण्डा जब आगे गिरै तब गुरू लेवैं सेई
करै बराबर आपनी सिख को निस्सन्देह
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जित जित इन्द्री जात है तित मन कूँ ले जात
बुधि भी संगहि जात है ये निस्चय करि बात
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सतगुरू शब्दी तेग़ है लागत दो करि देही
पीठ फेरि कायर भजै सूरा सन्मुख लेहि
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दुर्जन के फूटे बिना तेरी होय न जीत
'चरनहिदास' बिचारि करि ऐसी कहिये रीत
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सतगुरू शब्दी मारिया पूरा आया वार
प्रेमी जूझै खेत में लगा न राखा तार
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जित इन्द्री मन हूँ गया रही कहाँ सूँ बुध्दि
'चरनदास' यौं कहत हैं करि देखो तुम सुध्दि
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न्यारे न्यारे चखत है अपने अपने स्वाद
इन पांचौ में प्रीत है कछु न बाद बिबाद
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जौ वे बिछुरैं घड़ी भी तौ गंदा होइ जाय
'चरनदास' यौं कहत हैं गुरू को राखि रिझाय
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चलौ करै थिर ना रहै कोटि जतन करि राख
ये जबहीं बस होयगा इन्द्रिन के रसनाख
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ये आपा तुम कूँ दिया जित चाहौ तित राखि
'चरनदास' द्वारे परो भावै झिड़कौ लाखि
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जुदी जुदी पांचौ कहूँ एक एक का भेद
जो कोइ इन कूँ बस करै सबहीं छूटैं खेद
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सतगुरू मेरा सूरमा करै शब्द की चोट
मारै गोला प्रेम का ढहै भरम का कोट
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मुख सेती बोलन थका सुनै थका जो कान
पावन सूँ फिरवा थका सतगुरू मारा बान
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सतगुरू शब्दी तीर है तन मन कीयो छेद
बेदर्दी समझै नहीं बिरही पावै भेद
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जाति बरन-कुल आस्रम मान बड़ाई खोय
जब सतगुरू के पग लगै साँच शिष्य ह्वै सोय
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माता सूँ हरि सौ गुना जिन से सौ गुरूदेव
प्यार करैं औगुन हरैं 'चरनदास' सुकदेव
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सतगुरू शब्दी सेल है सहै धमूका साध
कायर ऊपर जो चलै तौ जावै बर्बाद
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जब सतगुरू किरपा करैं खोलि दिखावैं नैन
जग झूठा दीखन लगै देह परे की सैन
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गुरू के आगे जाय करि ऐसे बोलै बोल
कछू कपट राखै नहीं अरज करै मन खोल
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दया होय गुरूदेव की भजै मान अरू मैन
भोग वासना सब छुटै पावै अति ही चैन
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दृष्टि पड़ै गुरूदेव की देखत करें निहाल
औरैं मति पलटैं तवै कागा होत मराल
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इन्द्री मन के बस करै मन करै बुधि के संग
बुधि राखै हरि पद जहाँ लागै ध्यान अभंग
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पितु सूँ माता सौगुना सुत को राखै प्यार
मन सेती सेवन करै तन सूँ डाँट उरू गार
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सतगुरू शब्दी लागिया नावक का सा तीर
कसकत है निकसत नहीं होत प्रेम की पीर
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शब्द बान मोहिं मारिया लगी कलेजे माहिं
मारि हँसे सुकदेव जी बाक़ी छोड़ी नाहिं
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इन्द्रिन सूँ मन जुदा करि सुरति निरति करि सोध
उपजै ना बिष बासना 'चरनदास' कर बोध
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इन्द्री रोके ते रुकैं और जतन नहिं कोय
मन चंचल रिझवार है रसिक सवादी होय
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कांचे भांडे सूँ रहै ज्यों कुम्हार का नेह
भीतर सूँ इच्छा करै बाहर चाटै देह
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मैं मिरगा गुरू पारघी शब्द लगायो बान
'चरनदास' घायल गिरे तन मन बीधे प्रान
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सतगुरू शब्दी बान है अंग अंग डारे तोड़
प्रेम खेत घायल गिरे टाँका लगै न जोड़
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एक कोन मेवा मिलै, एक चने भी नाहिं
कारन कौन दिखाइये, करि चरनन की छाँहिं
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करी न हरि करी भक्ति हीं गुरू सेवा तजि दीन्ह
सुनी न हरि की गुन कथा सत संगति नहिं कीन्ह
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अभिमानी मींजे गये लूट लिये धन बाम
निरअभिमानी हो चले पहुँचे हरि के धाम
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जो जानै या भेद कू और करै परबेस
सो अबिनासी होत है छूटैं सकल कलेस
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पहिले साधै बचन कूँ, दूजे साधै देह
तीजे मन कूँ साधिये, उर सूँ राखै नेह
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चरनदास यों कहत हैं, सुनो गुरू सुकदेव
ज्योँ करि होवहिं कर्म हूँ, ता कूँ कहिये भेव
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गगन मध्य जो कंवल है बाजत अनहद तूर
दल हजार को कमल है पहुंचै गुरू मत सूर
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इन्द्री मन मिलि होत है बिषय बासना चाह
उपजै जैसे काम हीं नारी मिलि अरू नाह
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नाम ब्रह्म का है नहीं है तो वह ओंकार
जानै आपन को वहीं मैं हौं तत्व अपार
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चरनदास यों कहत है इन्द्री जीतन ठान
जग भूलै हरि कूं मिलै पावै पद निर्बान
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अपने घर का दुख भला पर घर का सुख छार
ऐसे जानै कुल बधऊ सो सतवंती नार
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दूध मध्य ज्यों घीव है मेहंदी माहीं रंग
जतन बिना निकसै नहीं 'चरनदास' सो ढंग
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जिन हीं के उपदेस कूँ, राखै अपनो चित्त
ता कूँ मनन सदा करै, भूलै नहिं नित प्रित्त
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रंग होय तौ पीव को आन पुरूष बिष रूप
छाँह बुरी पर घरन की अपनी भली जु धूप
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere