Sufinama
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आ’क़िल ख़ान राज़ी

1614 - 1696 | दिल्ली, भारत

आ’क़िल ख़ान राज़ी का परिचय

उपनाम : ''राज़ी''

मूल नाम : अली असकरी ख़्वाफ़ी

जन्म :औरंगाबाद, महाराष्ट्र

निधन : दिल्ली, भारत

क़िल ख़ाँ राज़ी का जन्म दक्कन में सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में जहाँगीर के शासनकाल में हुआ था, और ख़ुद राज़ी ने अपनी कविता 'समरात-उल-हयात' में इसका ज़िक्र किया है:

ब-हिंदुस्तान अगर हस्तम सुख़न बाफ़

व लेकिन तार-ओ-पोरम हस्त दर ख़्वाफ़

उपर लिखे शेर से यह बात मालूम होती है कि राज़ी का संबंध ख़्वाफ़ (ख़ुरासान) से है और वह मूल-रूप से एक हिंदुस्तानी शाएर है. ज़्यादातर तज़्किरों में उनका नाम मीर असकरी लिखा गया है और ख़ुद राज़ी की किताब 'समर-उल-हयात' में मीर अली असकरी लिखा है उन्होंने अपने नाम और तख़ल्लुस के संबंध में एक शेर लिखा है:

मरा दर दफ़्तर-ए-दीवान-ए-अय्याम

तख़ल्लुस राज़ी अस्त व असकरी नाम

क़िल ख़ाँ राज़ी चूँकि बुरहानुद्दीन राज़-ए-इलाही के मानने वालों में थे और उनसे अपन संबंध के बुनियाद पर उन्होंने अपना तख़ल्लुस राज़ी रखा.

उनका संबंध ईरान से था और उनके परीवार वाले ख़ुरासान के एक गाँव ख़्वाफ़ के बाशिंदा थे उनके वालिद का नाम सय्यद मोहम्मद तक़ी था. चूँकि उनका संबंध ख़्वाफ़ से था इस वजह से उनको लोग ख़्वाफ़ी के नाम से भी जानते हैं. अपनी किताब समरात-उल-हयात में उन्होंने अपने वालिद का नाम मोहम्मद क़ासिम भी लिखा है यानी उनके पिता के दो नाम थे. राज़ी की दो औलादें थी एक लड़का और एक लड़की. शुक्रुल्लाह ख़ाँ जो कि साहब-ए-दीवान शाएर थे और शर्ह-ए-मस्नवी मौलवी के मुसन्निफ़ भी थे वो राज़ी के दामाद थे.

राज़ी ने उलूम-ए-दीनी के बा, तसव्वुफ़ की ओर रुख़ किया और उलूम-ए-रूहानी हासिल करने के लिए उस वक़्त के मश्हूर-ओ-मारूफ़ शत्तारी सिल्सिला के बुज़ुर्ग बुरहानुद्दीन राज़-ए-इलाही की ख़िदमत में हाज़िर हुए. हज़रत बुरहानुद्दीन राज़-ए-इलाही औरंगज़ेब के ज़माने के एक बड़े आरिफ़-बिल्लाह सूफ़ी थे. राज़ी ने अपने रूहानी गुरु राज़-ए-इलाही के वंश के बारे में अपनी किताब 'समरात-उल-हयात' में लिखा है. सहाएफ-ए-शराएफ में राज़ी के 6 मक्तूब हैं जिनमें से एक उनके उस्ताद के नाम है. इस मक्तूब में उन्होंने अपने उस्ताद के लिए सम्मान, अक़ीदा और मोहाब्बत का इज़हार किया है और उनसे अपने परिवार के दुसरे लोग जो उनसे बैअत थे उनके लिए दुआ की दरख़्वास्त की है.

उन्होंने औरंगजेब आलमगीर की लगभग 49 साल तक मुलाज़मत की और ऊँचे पदों पर रह कर बादशाह और देश की खिदमत करते रहे. वह औरंगज़ेब के शाज़ादगी के ज़माने से लेकर अपने अंतिम दिन 49 सल तक मुलाज़मत की जिसमें 11 साल उनकी मुलाज़मत से माज़ूली के शामिल नहीं हैं. 1696 ई. में उनका इंतिक़ाल हुआ.

मिर्ज़ा अब्दुल कादिर बेदील उनके समकालीनों में से एक थे और उन्होंने राज़ी की मृत्यु पर एक ग़ज़ल लिखी, जिसमें उनसे मोहब्बत और इज़्ज़त का पता चलता है और उनहोंने मुख़्तलिफ़ सम्मानित उपनामों से उन्हें याद किया है. इसके अलावा ग़नी कश्मीरी और नेमत ख़ाँ आली जैसे ख़ास सूफ़ी शाएर भी उनके ज़माने से वाबस्ता थे. इसके अलावा मुहम्मद अफ़ज़ल सरख़ुश और नासिर अली सरहिंदी जैसे मुम्ताज़ शाएर और आलिम भी उनके ज़माने में मौजूद थे.

नज़्म की पाँच और नस्र की पाँच कुल मिला कर उनकी दस किताबें हैं. (नज़्म) मसनवी मेह्र-ओ-माह, शम-ओ-परवाना या पदमावत, मुरक़्क़ा, दीवान, गुल-ओ-बुलबुल (नस्र) वक़ा-ए-आलामगीरी, समरात-उल-हयात, कशकोल, रिसाला अमवाज-ए-ख़ूबी, नग़्मात-उल-इश्क़ या नग़्मात-उल-राज़ी

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