फ़क़ीर क़ादरी के अशआर
ख़ुदी ख़ुद-ए’तिमादी में बदल जाये तो बंदों को
ख़ुदा से सरकशी करने की नौबत आ ही जाती है
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उ’मूमन ख़ाना-ए-दिल में मोहब्बत आ ही जाती है
ख़ुदी ख़ुद-ए’तिमादी में बदल जाये तो बंदों को
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हस्ती की इस किताब के मा’नों पे ख़ूब ग़ौर कर
लाखों क़ुरआन हैं निहाँ रिंद की कायनात में
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फ़क़ीर-ए-‘कादरी’ जो देखते हैं चश्म-ए-बीना से
तो बंदे को ख़ुदा कहने की जुर्अत आ ही जाती है
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नई है बिलकुल नई है साहब ये दास्ताँ जो सुना रहा हूँ
अभी अभी ही बना हूँ बंदा पहले मैं भी ख़ुदा रहा हूँ
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere