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गुरू दादू रू कबीर की काया भयी कपूर
जन 'रज्जब' उनकी दया पाई निश्चल ठौर
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अथ जतन का अंग - जन 'रज्जब' राखे बिना नाम न राख्या जाय
जैसे दीपक जतन बिन विसवाबीस बुझाय
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तन मन धक्का देत है पुनि धक्का पंच भूत
'रज्जब' इन में ठाहरै सो आतम अबधूत
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सांई लग सेवा रची टरया न अपनी टेक
दादू सम नहिं दूसरा दीरध दास सु एक
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'रज्जब' राम न रहम कर अक्षर लिखे न भाल
ताथें सद्गुरू ना मिलया गुरू शिष रहे कंगाल
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कोयल अंडे काक गृह, सुत निपजे पर सेव ।
त्यों रज्जब शिष भाव को, प्रति पाले गुरू देव ।।
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