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रज़ा वारसी

1859 - 1954 | कोलकाता, भारत

हाजी वारिस अ’ली शाह के मुरीद और मस्त-हाल बुज़ुर्ग

हाजी वारिस अ’ली शाह के मुरीद और मस्त-हाल बुज़ुर्ग

रज़ा वारसी का परिचय

उपनाम : 'रज़ा'

मूल नाम : बाबा हसन रज़ा

जन्म :सुलतानपुर, उत्तर प्रदेश

निधन : 01 Apr 1954 | वेस्ट बंगाल, भारत

बाबा रज़ा शाह वारसी का अस्ल नाम मुहम्मद हसन था। उनका तअ’ल्लुक़ रऊसा-ए-सुल्तानपुर ,उत्तरप्रदेश से था। उनकी पैदाइश 1859 ई’स्वी में सुल्तान पूर में हुई थी। उनके वालिद हाजी वारिस अ’ली शाह के मुरीद थे। उन्होंने अपने फ़र्ज़न्द रज़ा शाह को हाजी वारिस अ’ली शाह के सामने सलाम कराने की ग़र्ज़ से लाया और बैअ’त भी करा दिया। कुछ अ’र्सा अपनी ख़िदमत में रखा और बा’द अज़ाँ रियाज़त-ए- रुहानी का हुक्म देकर बर्मा के जंगलात में जाने की इजाज़त अ’ता फ़रमाई। कहा जाता है कि बाबा रज़ा शाह वारसी सात साल तक बर्मा के जंगलात में इ’बादत-ए-इलाही में मसरूफ़ रहे। इन्ही जंगलात में वारिस -ए-पाक से मुलाक़ात हुई और हुक्म मिला कि अब कलकत्ता चले जाओ। चुनाँचे आप कलकत्ता आए और पुलिस में बहाल हो गए। बाबा रज़ा शाह वारसी का मिज़ाज बचपन से फ़क़ीराना था। पूरी ज़िंदगी मुजर्रद रहे। जज़्ब-ओ-कैफ़ के आ’लम में रहा करते थे जिसकी वजह से पुलिस कमिश्नर और दूसरे लोग आपको दीवाना और मजनूं कहा करते थे। नौकरी से सुबुक-दोशी के बा’द कलकत्ता में ही रहे और किसी को मुरीद न किया। अक्सर देवा हाज़िर होते और सैंकड़ों लोगों के साथ आते। वारिस-ए-पाक के मज़ार की चादर पकड़वा कर मुरीद करवाते थे, और कहते थे कि हाजी वारिस तुम्हारे पीर हैं और तुम उनके मुरीद हो और हम तुम्हारे पीर भाई हैं। आप ज़िंदगी बहुत सादा गुज़ारते थे। कुर्ता और लुंगी आपका ख़ास लिबास था जो ज़र्द रंग का हुआ करता था। बाबा रज़ा शाह वारसी के हज़ारों अफ़राद चाहने वाले थे। आपके अ’क़ीदत-मंदों ने सिलसिला-ए-वारिसया के मिशन की तब्लीग़-ओ-इशाअ’त के लिए 1957 ई’स्वी में प्रेम कोटि का क़याम किया जो एक रजिस्टर्ड सोसाइटी है। उसका मक़सद तमाम मज़ाहिब में यक-जहती और इत्तिहाद का जज़्बा पैदा करना था। बाबा रज़ा शाह वारसी का कलाम तक़रीबन एक हज़ार नज़्मों और ग़ज़लों पर मुश्तमिल है। ये 1965 ई’स्वी में इंतिख़ाब-ए- फरमूदात-ए-रज़ा के नाम से शाए’ हो चुका है। रज़ा शाह वारसी का इंतिक़ाल 17 अप्रैल 1954 ई’स्वी को सुब्ह 7 बजे हुआ कलकत्ता में हुआ | आपका मज़ार मरजा'-ए-ख़लाइक़ है।


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