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प्रीति सहित जे हरि भजैं, तब हरि होहि प्रसन्न।
सुन्दर स्वाद न प्रीति बिन, भूख बिना ज्यौं अन्न।।
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तीन गुननि की वृत्ति मंहि, है थिर चंचल अंग।
ज्यौं प्रतिबिबंहि देषिये, हीलत जल के संग।।
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उहै ब्रह्म गुरु संत उह, बस्तु विराजत येक।
बचन बिलास विभाग श्रम, बन्दन भाव बिबेक।।
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अपणां सारा कछु नहीं, डोरी हरि कै हाथ।
सुन्दर डोलैं बांदरा, बाजीगर कै साथ।।
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तमगुण रजगुण सत्वगुण, तिनकौ रचित शरीर।
नित्य मुक्त यह आतमा, भ्रमते मानत सीर।।
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सुन्दर बंधै देह सौं, तौ यह देह निषिद्ध ।
जौ याकी ममता तजै, तौ याही में सिद्धि।।
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पाप पुण्य यह मैं कियौ, स्वर्ग नरक हूँ जाउं।
सुन्दर सब कछु मानिले, ताहीतें मन नांउ।।
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जौ यह उसेक ह्वै रहै, तौ वह इसका होय।
सुन्दर बातौं न मिलै, जब लग आप न खोय।।
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जब मन देषै जगत कौं, जगत रूप ह्वै जाइ।
सुन्दर देषैं ब्रह्मकौं, तन मन ब्रह्म अबाइ।।
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