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वली वारसी

- 1990 | अमृतसर, भारत

वली वारसी के अशआर

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आँखों आँखों ही में खुल जाते हैं लाखों असरार

दर्स-ए-उल्फ़त के लिए हाजत-ए-उस्ताद नहीं

अगर चाहूँ निज़ाम-ए-दहर को ज़ेर-ओ-ज़बर कर दूँ

मिरे जज़्बात का तूफ़ाँ ज़मीं से आसमाँ तक है

वाक़िफ़ हैं राज़-ए-इश्क़ से अहल-ए-चमन कि गुल

सुन कर मिरा अफ़्सानः-ए-ग़म मुस्कुरा दिया

तेरे फ़िराक़ में हर-वक़्त आह करता हूँ

तेरे लिए जवानी तबाह करता हूँ

फ़रोग़-ए-हसरत-ओ-ग़म से जिगर में दाग़ रखता हूँ

मिरे गुलशन की ज़ीनत दौर-ए-हंगाम-ए-ख़िज़ाँ तक है

बरस ख़ुदा के लिए मुझ पर सहाब-ए-करम

कि तेरी आस पे फिर इक गुनाह करता हूँ

लोग कहते हैं मोहब्बत में ख़ुदा मिलता है

लेकिन अपनी है ये हालत कि ख़ुदा याद नहीं

गुलशन में जा के दाग़-ए-जिगर जब दिखा दिया

फूलों को हम ने पैकर-ए-हैरत बना दिया

सताता है मुझे सय्याद ज़ालिम इस लिए शायद

कि रौनक़ उस के गुलशन की मिरे शग़्ल-ए-फ़ुग़ाँ तक है

मुझे ऐश-ओ-ग़म में ग़रज़ नहीं अगर आरज़ू है तो है यही

कि उमंग बन के छुपा रहे कोई दिल के पर्दा-ए-राज़ में

खिलने लगी अगर कोई उम्मीद की कली

बर्क़-ए-अलम तड़प के गिरी और जला दिया

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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