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Benazir Shah Warsi's Photo'

बेनज़ीर शाह वारसी

1863 - 1932 | हैदराबाद, भारत

हाजी वारिस अ’ली शाह के मुमताज़ मुरीद और वहीद इलाहाबादी शागिर्द-ए-रशीद

हाजी वारिस अ’ली शाह के मुमताज़ मुरीद और वहीद इलाहाबादी शागिर्द-ए-रशीद

बेनज़ीर शाह वारसी के अशआर

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नहीं चलती कोई तदबीर ग़म में

यही क्या कम है जो आँसू रवाँ है

तेरे ग़म ने ये दिन दिखाया मुझे

कि मुझ से ही आख़िर छुड़ाया मुझे

शब-ए-ग़म देखता हूँ उठ के हर बार

वही है या कोई और आसमाँ है

पहुँच जाती है किसी के गोश-ए-दिल तक

हमारी आरज़ू इतनी कहाँ है

हमीं दैर-ओ-का'बा ख़ुदा-ओ-सनम

हमीं साहब-ख़ाना घर भी हमीं

किसी को तो ज़ाहिद को होती मोहब्बत

बुतों की होती ख़ुदा की तो होती

सितम करते मिल कर तो फिर लुत्फ़ था

जुदाई में क्या आज़माया मुझे

रात-भर फिरता था कनआँ में ज़ुलेख़ा का ख़याल

मिस्र को यूसुफ़ चले उस ख़्वाब की ता'बीर को

क़ब्र पर दामन-कशाँ ही आओ आओ तो सही

फिर झटक देना हमारी ख़ाक-ए-दामन-गीर को

बनाया मुझे ग़म ने तस्वीर-ए-यास

उन्हें रहम इस हाल पर भी नहीं

हर इक जिस्म में है वही बस ख़मोश

हर आवाज़ में बोलता है वही

ख़ुदा जाने था ख़्वाब में क्या समाँ

अरे दर्द-ए-दिल क्यूँ जगाया मुझे

वही ज़ात-ए-मुतलक़ वही बे-नज़ीर

वही शक्ल-ए-इंसाँ ख़ुदा है वही

तिरे घर में इस दर्जा छुप छुप के रोए

कि शाहिद है एक एक को रोना हमारा

ख़ुदा जाने वो जा रहे थे कहाँ

इधर भी निगाह-ए-करम हो गई

रहे तू बरी ता-क़यूदात से

इसे बंद-ए-ग़म से रिहाई रहे

खिलती कली गो मिरी आरज़ू की

गिरह उन के बंद-ए-क़बा की तो होती

वाए क़िस्मत शम्अ' पूछे भी परवानों की बात

और बे-मिन्नत मिलें बोसे लब-ए-गुल-गीर को

मिरे घर आएँ मुझ को बुलाएँ

मुलाक़ात अब और राहों से होगी

हमीं दैर-ओ-का'बा ख़ुदा-ओ-सनम

हमीं साहब-ख़ाना घर भी हमीं

नहीं चलती कोई तदबीर ग़म में

यही क्या कम है जो आँसू रवाँ है

नहीं खोलते आँख क्यूँ 'बेनज़ीर'

वो आता है कोई उधर देखिये

रहे वस्ल जब तक बक़ा से तुझे

उस की हमारी जुदाई रहे

ख़ुदा जाने था ख़्वाब में क्या समाँ

अरे दर्द-ए-दिल क्यूँ जगाया मुझे

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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