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फ़ना निज़ामी कानपुरी

1922 - 1988 | कानपुर, भारत

जिगर मुरादाबादी के शागिर्द और मुम्ताज़ शाइ’र

जिगर मुरादाबादी के शागिर्द और मुम्ताज़ शाइ’र

फ़ना निज़ामी कानपुरी के अशआर

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दुनिया के हर इक ग़म से बेहतर है ग़म-ए-जानाँ

सौ शम्अ' बुझा कर हम इक शम्अ' जला लेंगे

हम गुलशन-ए-फ़ितरत से जीने की अदा लेंगे

शाख़ों से लचक लेंगे काँटों से अना लेंगे

ज़ब्त-ए-ग़म की ये क़ीमत मिली

बेवफ़ाई की तोहमत मिली

रह जाये चंद रोज़ जो बीमार-ए-ग़म के पास

ख़ुद अपना दिल दबाए हुए चारागर फिरे

उन को गुल का मुक़द्दर मिला

मुझ को शबनम की क़िस्मत मिली

ग़म से नाज़ुक ज़ब्त-ए-ग़म की बात है

ये भी दरिया है मगर ठहरा हुआ

घर हुआ गुलशन हुआ सहरा हुआ

हर जगह मेरा जुनूँ रुस्वा हुआ

शायद कि यही आँसू काम आएँ मोहब्बत में

हम अपनी मता-ए-ग़म बर्बाद नहीं करते

उन को गुल का मुक़द्दर मिला

मुझ को शबनम की क़िस्मत मिली

'फ़ना' तेरी तक़दीर में

सारी दुनिया के ग़म रह गए

दिल इश्क़ में होता है माइल-ब-फ़ुग़ाँ पहले

जब आग सुलगती है उठता है धुआँ पहले

कुछ दर्द की शिद्दत है कुछ पास-ए-मोहब्बत है

हम आह तो करते हैं फ़रियाद नहीं करते

बन जाएगा अल्लाह का घर ख़ुद ही किसी दिन

फ़िलहाल 'फ़ना' को सनम-ख़ाना कहेंगे

रफ़्तार यार का अगर अंदाज़ भूल जाये

गुलशन में ख़ाक उड़ाती नसीम-ए-सहर फिरे

शायद कि यही आँसू काम आएँ मोहब्बत में

हम अपनी मता-ए-ग़म बर्बाद नहीं करते

जब भी ख़त लिखने बैठे उन्हें

सिर्फ़ ले कर क़लम रह गए

कोई समझेगा क्या राज़-ए-गुलशन

जब तक उलझे काँटों से दामन

घर हुआ गुलशन हुआ सहरा हुआ

हर जगह मेरा जुनूँ रुस्वा हुआ

गुल तो गुल ख़ार तक चुन लिए हैं

फिर भी ख़ाली है गुलचीं का दामन

हम गुलशन-ए-फ़ितरत से जीने की अदा लेंगे

शाख़ों से लचक लेंगे काँटों से अना लेंगे

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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