मीर मोहम्मद बेदार का परिचय
मुहम्मद अ’ली नाम, मीर लक़ब , उ’र्फ़ मीर मुहम्मदी और तख़ल्लुस ‘बेदार’ था। अ’रब सराय शाहजहाँबाद में सुकूनत-पज़ीर थे। ‘मीर’ और ‘सौदा’ के हम-अस्र थे। उर्दू फ़ारसी दोनों ज़बान में मश्क़-ए-सुख़न करते थे। उस्तादी का मर्तबा हासिल था। ख़्वाजा फ़ख़रुद्दीन चिश्ती देहलवी से बैअ’त हो कर तरीक़ा-ए-सिलसिला-ए-चश्तिया के तरीक़-ओ-अत्वार को अपनी ज़िंदगी का हासिल बनाया और लिबास-ए-दरवेशी ज़ेब-तन किया| मीर हसन अपने तज़्किरा में एक जगह लिखते हैं: “क़रीब चहार दहः साल शूदः बाशद कि फ़क़ीर ऊ रा दर लिबास-ए-दरवेशी दर शाहजहाँबाद दीदः बूद” आख़िर में उन्होंने खिर्क़ा-ए-ख़िलाफ़त पहना। आख़िर-ए-वक़्त में दिल्ली से आगरा चले गए और वहीं विसाल फ़रमाया। क़वी रिवायात है कि वो उर्दू कलाम के लिए ख़्वाजा मीर दर्द देहलवी को अपना उस्ताद तस्लीम करते थे। बेदार के बारे में मा’लूमात बहुत कम दस्तयाब हैं। चूँकि ख़्वाजा मीर ‘दर्द’ उनके उस्ताद थे इसलिए उनके कलाम में मीर ‘दर्द’ का रंग देखने को मिलता है। उनके कलाम में वो सारी खूबियाँ और ख़ुसूसियात मौजूद हैं जो उनके मुआ’सिरीन के कलाम में पाई जाती हैं। प्रोफ़ेसर अ’ब्दुल-ग़फ़ूर शहबाज़ बेदार मीर मुहम्मद से मुतअ’ल्लिक़ लिखते हैं कि “हज़रत मौलाना फ़ख़्रुद्दीन जो दिल्ली के अकाबिर मशाइख़ में थे और अक्सर शाहज़ादे और उमरा उनके मुरीद थे वो एक दफ़्आ’ अकबराबाद तशरीफ़ लाए और हज़रत सय्यदना अमीर अबुल-उ’ला अकबराबादी के मज़ार-ए-मुबारक पर चंद माह मो’तकिफ़ रहे। उसी ज़माने में हज़रत मुल्ला (किताबों में मीर लिखा है) मुहम्मदी बदायूँनी अल-मुतख़ल्लिस ब-बेदार जिनका मज़ार अकबराबाद कनारी बाज़ार दाँत के कटरे में वाक़े’ है, ये नज़ीर के बड़े दोस्त थे, ये और नज़ीर दोनों हज़रत सय्यदना अमीर अबुल-उ’ला अकबराबादी के मज़ार-ए-मुबारक के हाज़िर-बाश थे। वहीं मौलाना से मुलाक़ात हुई और उनके हल्क़ा-ए-इस्तिर्शाद में आए और वहीं से मज़ाक़-ए-तसव्वुफ़ पैदा हुआ। मीर मुहम्मदी बेदार का हाल-ए-बातिन यूँ तहरीर करते हैं, अस्ल उनकी देहली है। ज़ी-इ’ल्म आदमी थे। अ’हद-ए-शबाब को अ’रब-सरा में बसर किया जो शाहजहाँबाद से तीन कोस है। हज़रत मौलवी मुहम्मद फ़ख़्रुद्दीन साहिब के आगे सर-ए-अ’क़ीदत झुकाया और उनके अन्फ़ास-ए-मुतबर्का से फ़ाएदा-ए-ज़ाहिरी-ओ-बातिनी उठाया। आग़ाज़-ए-सुब्ह-ए-पीरी में अकबराबाद तशरीफ़ लाए। कटरा दंदान फ़ेल में क़याम किया। दो दीवान के मालिक हैं। उर्दू में मीर दर्द से उनको फ़ैज़-ए-सुख़न हासिल था और फ़ारसी में मुर्तज़ा अकली बैग फ़िराक़ से“ ( ज़िंदगानी-ए-बे-नज़ीर, सफ़हा 163) तसव्वुफ़ उनके रूह के साथ पैवस्त था। इसका असर उनकी कुछ ग़ज़लों में देखने को मिलता है। ग़ज़लें शुरूअ’ से आख़िर तक अख़लाक़ और तसव्वुफ़ के मज़ामीन से लबरेज़ हैं। इस में कोई शुबहा नहीं कि ग़ज़ल से अमरद -परस्ती, बुल-हवसी और आ’मियाना इज़्हार-ए-इ’श्क़ के मज़ामीन निकाल कर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ, ख़्वाजा मीर ‘दर्द’ और ‘सौदा’ जैसे शो’रा ने तसव्वुफ़ और अख़लाक़ का रंग भरा और एक शरीफ़ाना मुब क़ालिब-ए-ग़ज़ल के मुहय्या किया इस कोशिश में मीर मुहम्मद ‘बेदार’ भी बराबर के हिस्सादार हैं।