सरमद काशानी का परिचय
सर्मद शहीद मशहूर फ़ारसी रुबाई’-गो शाइ’र और मज्ज़ूब गुज़रे हैं सर्मद की पैदाइश 1590 ई’स्वी में आर्मीनिया के कोहिस्तान में हुई। वो ईरान के किसी ख़ानदान से थे। उनका वतन काशान था। बा’ज़ मुवर्रिख़ीन ने सर्मद को ई’साई और बा’ज़ ने यहूदी कहा है। बा’द में उन्होंने इस्लाम क़ुबूल किया। उन्हें इस्राई’ली ज़बान का भी आ’लिम कहा जाता था। सर्मद की इस्ति’दाद-ए-इ’ल्मी से मुतअ’ल्लिक़ उनकी रुबाई’ को देखना चाहिए कि किस में'या’र की उन्होंने शाई’री की है और क्या कहा है। माहिरीन का कहना है कि सर्मद मुल्ला सद्र शीराज़ी और अबुल-क़ासिम फ़ुंदरस्की के शागिर्द थे। अ’हद-ए-शाह-जहाँ में ब-तौर-ए-ताजिर हिन्दुस्तान आए। उस ज़माने में ईरानी मस्नूआ’त की हिन्दुस्तान में बहुत क़द्र थी। लोग उन्हें शौक़ से ख़रीदते थे। आपने हैदराबाद में क़याम किया फिर यहीं ठहर गए। वहाँ उन्हें किसी लड़की से इ’श्क़ हो गया और फिर सब कुछ छोड़-छाड़ कर दीवाना हो गए। उसी हालत में देहली तशरीफ़ लाए और दारा-शिकोह के हम-मिज़ाज साबित हुए। दोनों एक दूसरे को बड़ी क़द्र की निगाहों से देखा करते थे और इ’ज़्ज़त किया करते थे बल्कि दारा-शिकोह आपका मो’तक़िद हो चुका था| सर्मद शहीद एक मस्त क़लंदर इन्सान थे। कहा जाता है कि वो बहुत पहुंचे हुए इन्सान थे। नंगे बदन रहा करते थे। दारा-शिकोह के हम-दर्द थे। मे’राज-ए-जिस्मानी से इंकार करते थे और कलिमा पूरा नहीं पढ़ते थे| या’नी सिर्फ़ ला-इलाहा पढ़ा करते थे। इन्हीं वजूहात के पेश-ए-नज़र बादशाह आ’लमगीर ने उलमा के फ़तवे के मुताबिक़ आपको जामा मस्जिद की सीढ़ी पर शहीद करने का हुक्म सुनाया। 1070 हिज्री मुवाफ़िक़ 1661 ई’स्वी में सर्मद शहीद हो गए। आपका मज़ार जामे’ मस्जिद के नीचे मौजूद है जहाँ लोग बड़ी अ’क़ीदत से हाज़िरी दिया करते हैं|