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औघट शाह वारसी के अशआर
आ’शिक़ हज़ारों सूरत-ए-परवानना गिर पड़े
उल्टी नक़ाब रुख़ से जो महफ़िल में यार ने
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क़त्ल कुछ आ’शिक़ हुए मक़्तल में उस के हाथ से
कुछ फिरे मायूस और शौक़-ए-शहादत ले चले
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आ’शिक़ों को फिर क़ज़ा आई क़यामत हो गई
फिर समंद-ए-नाज़ को उस तुर्क ने जौलाँ किया
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दिल का आ’लम आ’शिक़ी में क्या कहूँ क्या हो गया
रंज सहते सहते पत्थर का कलेजा हो गया
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वो रहे आँखों में मेरी मैं न देखूँ ग़ैर को
ये हमारे और उन के अहद-ओ-पैमाँ हो गया
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बुतों का इश्क़ हुआ जब नसीब वाइ'ज़
कि मुद्दतों किया पहले ख़ुदा ख़ुदा हम ने
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गिर पड़े ग़श खा के आ’शिक़ और मुर्दे जी उठे
दो-क़दम जब वो चले ये हश्र बरपा हो गया
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'औघट' जहाँ में अब दिल-ओ-दीं पूछता है कौन
आशिक़ का इन बुतों में कोई क़द्र-दाँ नहीं
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करें आह-ओ-फ़ुग़ाँ फोड़ें-फफोले इस तरह दिल के
इरादा है कि रोएँ ई’द के दिन भी गले मिल के
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करें आह-ओ-फ़ुग़ाँ फोड़ें-फफोले इस तरह दिल के
इरादा है कि रोएँ ई'द के दिन भी गले मिल के
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तुझे देख ओ बुत-ए-ख़ुश-अदा फिरी आँख सारी ख़ुदाई से
वो जो याद रहती थी सूरतें उन्हें साफ़ दिल से भुला दिया
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कू-ए-जानाँ भी न छोड़ा ख़ाना-वीरानी के बा'द
देखना है अब कहाँ ये आसमाँ ले जाएगा
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
 
                         
 