संपूर्ण
ग़ज़ल35
शे'र14
परिचय
कलाम8
दोहा51
फ़ारसी कलाम1
ना'त-ओ-मनक़बत10
सलाम6
कृष्ण भक्ति सूफ़ी कलाम4
कृष्ण भक्ति संत काव्य1
औघट शाह वारसी
ग़ज़ल 35
शे'र 14
कलाम 8
दोहा 51
सजनी पाती तब लिखूँ जो पीतम हो परदेस
तन में मन में पिया बिराजैं भेजूँ किसे सँदेस
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दया बराबर धर्म नहीं प्रपंच बराबर पाप
प्रेम बराबर जोग नहीं गुरु-मंत्र बराबर जाप
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जाप जोग तप तीर्थ से निर्गुण हुआ न कोई
'औघट' गुरु दया करें तो पल में निर्गुण होई
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हर हर में 'औघट' हर बसें हर हर को हर की आस
हर को हर हर ढूँड फिरा और हर हैं हर के पास
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'औघट' पूजा-पाट तजो लगा प्रेम का रोग
सत्त-गुरु का ध्यान रहे यही है अपना जोग
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